पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६३०

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कषित भूमिमें, जलमें, श्मशानस्थ चिता और देव-मन्दिरमें, कर सन्ध्याबन्दनादि न करें तो, देव और पितृगण उसके मृत्तिकाके स्तूप और गर्तमें मलमूत्रका त्यागना सर्वथा द्वारा की हुई पूजा और श्राद्धादि ग्रहण नहीं करते। ऐसे विधेय नहीं है। . ब्राह्मण शूद्रके समान दैव और पैनकार्यमें वर्जनीय हैं। ___ ब्राह्मण मुंहसे फूक कर आग न जलावें । सन्ध्या “न गृह्णन्ति सुरास्तेषां पितरः पिण्डतर्पणम् । . . कालमें भोजन, भ्रमण और शयन निषिद्ध है। रेखादि स्वच्छया च द्विजातेश्र त्रिसन्ध्यारहितस्य च ॥" द्वारा भूमि खनन करना और पहनी हुई माला स्वयं "नापतिष्टति यः पूर्वी नोपास्ते यस्तु पश्चिमा । खोलना निषिद्ध है। जिस प्राममें अधिक संख्यक अधा ____स शूद्रबहिःकार्यः सर्वस्माद्विजकर्मणः ॥" मिकोंका वास हो, जो स्थान शूद्रवशवती हो और जहां (ब्रह्मौवर्तपु० प्रकृतिख० २१ अ.) घेद-वहिन पाषण्डोंका अधिकार हो, ऐसे स्थानमें वेदान्तसारमें लिखा है--सन्ध्याबन्दनादि नित्यकर्म ब्राह्मणों को न रहना चाहिए। जिन पदार्थों का स्नेहमय है, नहीं करनेसे प्रत्यवाय होता है । इसके अनुष्ठानसे सारभाग निकाल लिया गया हो, वे पदार्थ भी ब्राह्मणको दैनन्दिन पाप क्षय होते हैं। "नित्यानि, अकरणे प्रत्य- न खाना चाहिए। जिसमें दृष्ट और अदृष्ट किसी प्रकार वाय साधनानि सन्ध्यायन्दनादोनि" ( वेदांतसार ) का भी फल नहीं है, ऐसी वृथा चेष्टा भी करना उचित ब्राह्मणके प्रतिदिन संध्या करनेका फल---- नहीं। ब्राह्मण अञ्जलि द्वारा जल न पीयें, न ऊरुके "यावजीवनपर्यन्त यस्त्रिसन्ध्यं करोति यः। ऊपर रख कर भोजन करें, और न विना प्रयोजन किसी सच सूर्यसमो विप्रस्तजसा तपसा सदा ॥ विषयमे कौतूहल ही करें। अशास्त्रीय नृत्य-गीत अथवा तत्पादपद्मरजसा सद्यः पूना वसुधरा । वादिन-वादन न करें। बाहुके भीतर या ऊपर हथेलो जीन्मुक्तः स तेजस्वी संध्यापूतो हि यो द्विजः ॥ रस्त्र कर आस्फोटन ध्वनि, दन्तघर्षण और गर्दभादिकी तीर्थानि च पवित्राणि तस्य सस्पर्शमात्रतः। तरह चीत्कार करना भी ब्राह्मणके लिए निषिद्ध है । कांसे ततः पापाणि यान्त्येव नैनतेयादिवोरगाः॥" के पात्र में पैर धोने, फूटे बरतनमें भोजन करनेसे मनो. (ब्रह्मव वत्त'पु. प्रकृतिखं० २१ अ०) भाव अप्रशस्त होते हैं, इसलिए ऐसा न करना चाहिए। जो ब्राह्मण यावज्जीवन त्रिसन्ध्याका अनुष्ठान करते दूसरेके व्यवहार्य चर्मपादुका, वस्त्र, उपवीत, अलङ्कार, हैं, वे सूर्यके समान तेजस्वी होते हैं। उनके पाद-पन माला और कमण्डलु आदि व्यवहारमें लाना उचित पराग द्वारा पृथिवी पवित्र होती है, उनके संस्पर्शसे तीर्थ- नहीं। स्वयं अपने नख और लोम छेदन न करना समदाय भी पवित्र होता और पाप समूह धुल जाता है। चाहिए। ब्राह्मणके लिए निन्दित कर्म ये हैं-विष्णुमन्त्रका ब्राह्मणको चाहिए कि ब्राह्ममुहूर्तमें अर्थात् रात्रिके शेष परित्याग, त्रिसन्ध्या-जैन, एकादशी न करना, विष्णु- प्रहरमें जागरित होकर धर्म और अर्थको तथा कैसे कायक्लेश नैवेद्य-भोजन, शदान-भोजन, शूद शवदाहन, शूद-याजन, से वह प्राप्त होंगे, इसकी चिन्ता करें । वेदतत्त्वार्थे परबल- कन्या-विक्रय, हरिनाम-विक्रय और विद्या-विक्रय आदि निरूपण करके शय्यासे उठे। उसके बाद आवश्यक मल- कम ब्राह्मणके लिए निन्दनीय हैं। इनके सिवा धावक, मूत्र त्याग कर शुचि हो कर समाहित मनसे प्रातःस्नान, वृष-बाहक, तृषलोपति, असिजीवी, मसीजीवी, अवीरान- सन्ध्या और गायत्री जप करें। इससे दीर्घायु, प्रज्ञा, यश, | भोजी, ऋतुस्नातान्न भोजो, भगजीवी, वाषिक, सूर्यो- कीर्ति और ब्रह्मतेज प्राप्त होता है। इत्यादि। दयमें विर्भोजी, मत्स्यभोजी और शालग्राम शिलापूजादि विशेष जाननेके लिए मनुसंहिता ४र्थ अध्याय और आह्निक रहित बाह्मण निन्दित है। (ब्रह्मवै०पु० प्र०ख० २१) तत्त्व देखो। "यदि शूद्रा ब्रजेद्विप्रो वृषालीपतिरेब सः । __ब्राह्मणके लिए प्रतिदिन यथानियम सन्ध्यावन्दनादि स भ्रष्टौ विप्रजातेश्च चापडालात मोऽधमः स्मृतः ॥" करना अवश्य कर्त्तव्य है। यदि कोई ब्राह्मण मोहमें आ (ब्रह्मवै०पु० प्र०सं० २७)