पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६३६

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६३० ब्राह्मण्य-ब्राह्मसमाज ब्राह्मण्य (सं० क्ली०) ब्राह्मणानां समूहः ब्राह्मण (ब्राह्मण ब्राह्मसमाजका उत्पत्ति प्रकरण उसके प्रतिष्ठाता राजा मानबाड़वाद्यत । पा ४।२।४२) इति यत् । ब्राह्मण राममोहनरायको जीवनीके साथ इतना उलझा हुआ है, समूह । २ ब्राह्मणका धर्म, विप्रत्व। . कि उनकी जीवनीकी आलोचना दिना किये उसका प्रकृत ब्राह्मण यदि शूद्रासे पुत्रोत्पादन करे, तो उसके निरूपण करना बहुत ही कठिन हो जाता है। अतएवं ब्राह्मण धर्मको हानि होती है। (पु० ) ३ शनिग्रह। इस धर्म-समाजकी स्थापनाके प्रसङ्गमें उसके प्रवर्तककी ब्राह्मादन्त (सं० पु०) १ ब्रह्माका हस्तस्थित दण्ड । ब्रह्मास्त्र- कुछ जोवनी भो लिखी जाती है। भेद । ___बङ्गालके अन्तर्गत हुगलो जिलेके दक्षिण-विभागमें ब्राह्मदसायन (सं० पु० ) ब्रह्मदत्त नडादित्वात् फक खानाकूल ग्रामसे सटा हुआ राधानगर नामक एक ग्राम (पा ४१९E) ब्रह्मदत्तका अपत्य। है ; इसी ग्राममें राजा राममोहन रायका जन्म हुआ था। ब्राह्मप्राजापत्य ( स० वि०) ब्रह्मप्रजापति-सम्बन्धीय। इनके जन्म-संवत्के विषयमें मतभेद है। कोई कहते हैं, ब्राह्ममुहूर्त ( स० पु. ) ब्राह्मो ब्रह्मदेवताको मुहूतः । कि १७७४ ई०में इनका जन्म हुआ था और कोई कहते अरुणोदयकालके प्रथम दो दण्ड, सूर्योदय । हैं, कि १७७२ में हुआ था। राममोहनराय शाण्डिल्य- बाहाराति (संपु०) याज्ञवल्क्यका गोलापत्य। गोत्रीय बन्दोपाध्यायवंशीय सुरुई-मेलक राढीय कुलीन ब्राह्म-समाज --हिन्दूशास्त्र-सम्मत धर्मसम्प्रदाय विशेष, हिंदू ब्राह्मण थे। उनके पूर्वपुरुष मुसलमान नवाब-सरकारमें शास्त्रानुमोदित एक धर्म-समाज। एकमात्र परब्रह्मको प्रतिपत्तिशाली थे; इसीसे उनको 'राय' उपाधि थी। राम- उपासना ही इस सम्प्रदायका मुख्य उद्देश्य है। "एक- मोहन अंग्रेजोंके प्रथम अधिकारके समय कलेकुरोके मेवाद्वितीयम्" के सिवा यह समाज अन्य देवताओंका दीवान-पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। तवसे लोग उन्हें दीवान वास्तविक अस्तित्व नहीं मानता। साथ ही ये लोग। राममोहन राय कहते थे। आखिरमें दिल्लीके पेन्सन प्राप्त संस्कारके वशीभूत हो कर 'सर्वत्र' ही बह्म विद्यमान सम्रोटने 'राजा'की उपाधि दे कर उन्हें अपनी पेन्सनकी हैं, इस तत्त्ववाक्यकी दुहाई देकर काली, दुर्गा आदि धृद्धि कराने के लिए इंग्लैण्ड भेजा जिससे अन्तमें ये राजा देवी-देवताओं के प्रति भक्ति-प्रदर्शन करने में भी कण्ठित राममोहनगय कहलाये। नहीं होते । एक ब्रह्मके सिवा जगत्में और द्वितीय मूल राममोहनका पितृकुल पौराणिकमतके वैष्णवका शक्ति नहीं , यह शुद्ध अद्वैतवादियों का मत है। महात्मा उपासक और मातृकुल तान्त्रिकमतानुसार शक्तिका उपा- राममोहनराय द्वारा प्रतिष्ठित ब्राह्ममत उसीका अनुरूप सक था । उक्त दोनों कुलोंको स्वधर्ममतमें निष्ठावत्ताकी है * "ॐ तत् सत्" इनका मूल मन्त्र है। विशेष ख्याति थी। राममोहन प्रारम्भिक अवस्थामें पितृकुलके वैष्णवधर्ममें परम भक्तिमान् थे। कहा जाता

  • महात्मा राममोहन राय जिस ब्राहममतका प्रचार कर गये | है, कि वे प्रतिदिन श्रीमद्भागवतका एक अध्याय पाठ बिना

हैं, वह सम्पूर्णरूपसे शास्त्रानुमादित है या नहीं हम इस बातकी किये जल तक ग्रहण न करते थे। इसके अतिरिक्त मीमांसा नहीं करना चाहते। उन्होंने वेदान्त और उप- उनकी २२ पुरश्चरण-क्रियाकी बात भी सुनी जाती है। निषदादिसे जो धर्ममतकी व्याख्या की है, उसका अधिकारित्व ___राममोहन अपने प्राममें बंगला और फारसी सीखने- जनसाधारणके लिए कितना सम्भवपर है उसी सम्बन्धमें के बाद अरबीकी शिक्षा पानेके लिए पटना भेजे गये। वेदान्तसारमें लिखा है कि-"अधिकारी तु विधिवदधीतवेदवेदाङ्ग पीछे संस्कृत सोखनेको काशी भी पहुंचे । आप त्वेनापाततोऽधिगताखिल वेदार्थोऽस्मिन् जन्मनिजन्मान्तरेवाकाम्य निषिद्धवर्जनपुरःसरं नित्यनैमित्तिक प्रायश्चित्तोपासनानुष्ठानेन निर्गत पवित्र मतव्यक्ति कालप्रवल्यसे दुष्ट भावापन्न हो गई है। अभी निखिलकल्मपतयां नितान्तनिर्मलखान्तः साधनचतुष्टयसम्पन्नः | किसी किसो ब्राह्ममें बहुत-से ईसाई हाव भाव मिश्रित देखे प्रमाता ।" यह कुछ भी हो, पर इसमें सन्देह नहीं, कि उनकी । जाते हैं।