पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६४० ब्राह्मसमाज देवेंद्रनाथने शक सं० १७६१में स्वतः प्रवृत हो कर। पहले ब्राह्मसमाज "ब्रह्मसभा के नामसे प्रथित हुआ तस्वघोधिनी सभाका प्रारम्भ किया। दो वर्ष बाद वह था। बादमें विद्यावागीशकृत मुद्रित-व्याख्यानके मुख- भी ब्राह्मसमाजके साथ मिल गई थो । तत्त्वबोधिनी सभा- पृष्ठ पर “ब्राह्मसमाज में गठित यह वाक्य सन्निविष्ट की स्थापनाके बाद नाना मतके और नाना प्रकारके हुआ। तरवबोधिनो पत्रिकामें पहले तथ. उस समय पृथ्विोस्थ सभ्य समाजके सर्वश्रेणोके मनुष्य ब्रह्मसमाज- किसी किसी पुस्तकमें "ब्राह्मसमाज” नाम व्यवहत हुआ के नोचे आ कर खड़े होते थे *। था। इसके कुछ ही दिन बाद "ब्राह्मसमाज” नाम १७६५ शकाब्दमें तत्त्वबोधिनी सभा कुछ प्रधान स्थिरीकृत हो गया। कार्योका अनुष्ठान कर ब्राह्मसमाजके इतिहासमें स्मरणीय इस समय विशुद्धबङ्गला भाषामें शान विज्ञानसम्मत बनी है। वे कार्य इस प्रकार हैं.-(१) तत्त्वबोधिनी ग्रन्थ रचनामें कृतविद्य व्यक्तिगण व्यग्र थे। इसलिए पत्रिकाका प्रकाशन, (२) तत्त्वबोधिनी पाठशालाका तत्त्वबोधिनी सभामें "प्रन्थसभा” और अन्यसम्पादकके स्थापन, (३) व्रतरूपमें ब्राह्मधर्मकी दीक्षा ग्रहण, (४) ब्रह्म- कार्यको बाहुल्य हुआ। साहित्य और विज्ञानके साथ समाजको नियमावली अवधारण, और (५) मासिक सभा धर्मशिक्षा देनेके लिए तत्त्वबोधिनी पाठशाला खोली तथा सांवत्सरिक उत्सवका विधान । गई थी। वहां उपनिषद् आदिकी पढ़ाई होती थो । नियमावली अवधारणाके प्रसङ्गमें दोनों सभाको इसके लिए कुछ उत्कृष्ट पुस्तकें तत्त्वबोधिनी पत्रिकाके एकत्र करनेका प्रस्ताव आलोचित हुआ। उसमें स्थिर सम्पादक अक्षयकुमार दत्त द्वारा रची गई । सहज- हुमा कि, 'तत्त्वबोधिनी सभा स्वतंत्ररूपसे ज्ञान और पाठ्य वंगला भाषामें उन्नत ज्ञानकी आलोचनाके लिए विज्ञानके अनुशीलन द्वारा ब्रह्मधर्म का प्रचार करेगी। तत्त्वबोधिनी पत्रिकाका सर्वत्र समादर होने लगा। इस उसकी जो मासिक उपासना होतो है वह ब्राह्मसमाजकी प्रकारसे तत्त्वबोधिनी सभा और ब्राह्मसमाजने एक मासिक सभारूपमें प्रतिमासके प्रथम रविवारके प्रातः- एक साथ हो महती प्रतिष्ठा पाई थी। साहित्य रसा, कालमें समाहित होगी।' यह भो स्थिर हुआ कि, 'इन विज्ञानप्रिय, तत्त्वजिज्ञासु, विद्यानुरागीगण इस संसर्गसे दोनों सभाओंका पृथक सांवत्सरिक उत्सव न हो कर परम आनन्द अनुभव करने लगे। ने लगे। ब्राह्मसमाजका उपा- जिस दिन इस नूतन मन्दिरमें ब्राह्मसमाजकी उपासना सना-स्थान लोक पूर्ण दिखलाई देने लगा। भारम्भ होती है उसी दिन (बंगला ता० ११ माघको) __देवेन्द्रनाथने जब देखा कि, सभा भवनके दुमंजलमें इसका सांवत्सरिक उत्सव होगा। आदमी नहीं समाते, तब उन्होंने तोसरा मंजल बनवाया,

  • देवेन्द्रनाथके समय में स्कूल और कालेजकी प्रणालीके अनु-

जिसमें कि एक साथ ५०० आदमी आसानीसे बैठ सार साहित्य, विज्ञान और इतिहासादिमें सुशिक्षित और सुपण्डित : सकते थे। उसके बाद धमसाधना सम्बन्धमें कहां तक कुछ लोग ब्राझसमाजके पृष्ठपोषक हुए थे। उनमें अधिकांश क्या हो रहा है, इस पर उनको दृष्टि गई। पूर्व-रचित ही हिन्दू-कालेजके उत्तीर्ण छात्र थे। हिन्दुकालेजके गवर्नर प्रतिज्ञापत्रमें स्वाक्षर करके अनेकोंने नित्य-उपासनाके पदाधिष्ठित प्रसन्नकुमार ठाकुरने संस्कृत-कालेजके छात्रोंकी सहा- लिए सङ्कल्प तो किया, पर उपासना-पद्धति तब भो यतासे हिन्दू कालेजके छात्रों द्वारा अङ्ग्रेजी भाषामें लिखित उच्च निणीत वा निर्धारित न हो पाई थी। इसके सिवा धर्म- सर साहित्य और विज्ञानका वज्ञानुवाद पूर्णक बङ्गलामें पाठ्य- का बोध, चिन्ता और अभ्यासके उपयोगी एक प्रन्थका पुस्तके तैयार कराई थीं। अध्यापक रामचन्द्र विद्यावागीश इस भी अभाव मालूम देने लगा। क्रमशः इन दोनों अभावों- कतविध छात्रमगडली भौर नवीन ग्रंथकारों के गुरुस्थानीय थे। की पूर्ति होने लगी। राममोहन रायने एक संक्षिप्त उनके संसब और उपदेशसे इस सम्प्रदायके सुशिक्षित युवकोंने उपासनापद्धति लिखी थी। श्रुतिपाठ, स्तोत्र और प्रार्थनादि तत्वबोधिनी सभामें प्रविध हो कर क्रमशः ब्राह्मसमाजकी पुष्टि और द्वारा उसका कलेवर परिवद्धित किया गया । पश्चात् गौरववृद्धि की थी। श्रुत और स्मृति प्रन्योंसे सार सङ्कलन पूर्वक एक ब्राह्म-