पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६४७

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ब्राह्मसमाज ६४१ धर्मग्रंथ रचा गया । उस प्रथके संस्कृतमन्त्रोंका करते हुए राममोहन रायको प्रतिष्ठित सभाका गौरव सुबोध वंगला अनुवाद और व्याख्या भी कर दी गई। बढ़ानेमें कोई कसर न रखी।। भारतके प्राचीन ब्रह्मवादी ऋषिगण ब्रह्म विषयक जो प्रथमावस्थामें उन्होंने एक सुपण्डित पादरोसे विशेष महामन्त्र नित्य पाठ करते थे, इतने समय बाद वे श्रति निपुणताके साथ क्रिश्चियन धर्मग्रंथ पढ़ा । राममोहन वाक्य सजनगणोंके गोचर हुआ और अर्थबोधके साथ ! राय द्वारा सङ्कलित क्रिश्चियन उपदेशको पढ़ कर वे उनका नित्य पाठ होने लगा। हृदयको तृप्तिकर और उन्हें ईसाई धर्ममें अनुरक्त समझने लगे थे। किंतु गृहोजनोंको सर्वमङ्गलकर सन्नीतिको रचनावली घर आलोचना करते रहनेसे पीछे उनका यह भ्रम दूर हो घरमें ध्वनित होने लगो। बंगालको विद्वन्मण्डली गया। तदनन्तर ये ब्राह्म धर्मके मर्मको समझ कर प्राचीन ऋषियोंके आशीर्वाद सहित ज्ञानालोकको प्राप्त प्रतिज्ञापत्रमें हस्ताक्षर करके ब्राह्मसमाजके सदस्य बने । कर ऐहिक और पारत्रिक परम मङ्गलको माधना प्रवत फिर देवंद्रनाथके साथ केशवचंद्रका सम्मिलन हुआ । थोडे दिनों में यह मिलन एक अपूर्वा और अतुलनीय . परंतु फिर भी देवेंद्रनाथको सर्वतोभावसे परितृप्ति सौहादरूपमें परिणत हो गया था। देवेंद्रनाथका हृदय ईश्वर प्रेमले गदगद था। केशव- न हुई । उन्होंने देखा, बहुतसे भाई तर्कप्रिय हैं, उनमें प्रम चंद्रका भी यही हाल था । दोनोंके सम्मिलन और नहीं है, धर्मसाधनामें समुचित निष्ठा नहीं है; सुनगं योगधर्मकी भी विशेष चर्चा नहीं हो रही है। इन सव मौहार्द बद्धनमें यहो एक कारण था । देवेंद्रनाथ अद्वैदमत्- लक्षणोंको देख कर वे निगूढ धर्म चिन्तामें प्रवृत्त हुए । को अच्छा न समझते थे । उन्होंने शानो भक्त रामप्रसाद- को तरह वहुप्रकारसे तत्त्व संस्थापन किया था। केशव- कलकत्तामें उनका चित्त समाधान न हुआ। वे हिमालय चंद्रने उसे हो सर्वसाधारणके लिए ग्रहणीय बना दिया । प्रदेशको चल दिये। दोनोंने मिल कर एक ब्रह्म विद्यालय खोल दिया। देवेंद्रनाथ दो वर्ष हिमालय-प्रस्थमें भ्रमण कर देवेंद्रनाथ घर लौटे। शक सं० १७८०में कलकत्ता लौट कर उन्होंने ब्राह्म- आजम्बल मुम्वादु माधुभाषामें और केशवचन्द्र हुदय- धर्मानुरागो और एक उत्साही युवक-दल देखा। इस ग्राही तेजस्कर अंग्रेजीभाषामें उस विद्यालय के सैकड़ों छात्रोंको उपदेश दिया करते थे। मिर्फ विद्यालयमें हो युवक दलके नेता थे श्रीमत् केशवचंद्र सेन। नहीं, बल्कि घरमे, मैदानमें, सर्वदा ज्ञान और धर्म- ___श्रीयुक्त केशवचंद्र सन द्वारा प्रचारित नवविधान- को चर्चा किया करते थे। इस प्रकार 'सत्यं ज्ञान- समाजका विवरण यथास्थानमें लिखा गया है । १७८१ मनन्तं' परमेश्वरके प्रेम और पवित्रताको तथा मनुप्यके शकाब्दसे १७८६ तक इन्होंने ब्राह्मसमाजमें रह कर भ्रातृभावकी शिक्षा और व्याख्या, अलोचना और प्रचारमें उसकी जो महोन्नति को है, ब्रह्मसमाजके इतिहासमें वही केशवचन्द्र और देवेन्द्रनाथ स्वयं जैसे मस्त हो गये थे, उल्लेख-योग्य विषय है। नवविधान-समाज द्वारा ब्राह्म- श्रोता और सहचरवर्ग भी वैसे ही सर्वांशमें उनके सह- समाजका जो उपकार हुआ है, वह भी आखिरमें धमी बनने लगे थे। एक प्राणताके विस्तारके साथ दिखाया जायगा। केशवचंद्र और नवविधान देखो। ब्राह्मधर्मका प्रचार होने लगा। ब्राह्मधर्म प्रचारके लिए केशवचंद्रके पितामह रामकमल सेन एक लब्धप्रतिष्ठ कुछ व्यक्ति धन, मान, प्राण तक विसर्जन करनेके लिए विद्यावान् व्यक्ति थे। राममोहन रायके प्रतियोगी और प्रतिज्ञाबद्ध हो गये। प्रतिद्वदो विलसन साहबके साथ उनको गहरो मित्रता शक सं० १७८५ तक यही रफार रही। देवेन्द्रनाथ थी। राममोहनके विरुद्ध धर्म सभा स्थापित होने पर, इस समयको ब्राह्मसमाजका वसन्तकाल कहा करते थे। रामकमल सेन उस सभाके नेताओं में प्रधान नेता समझे उनकी उक्ति यह थी :-"इस समयमें हृदयके प्रीति- जाते थे। परंतु विधाताके विचित्र विधान है, उन्हीं। कुसुम द्वारा हृदयेश्वरकी अर्चना कर ब्राह्ममात्र ही कृतार्थ रामकमलके पौत्रने 'क्रिश्चियन' कुसंस्करोंसे अपनी रक्षा हुए थे।" Vol. XV, 161,