पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६४८

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६४२ ब्राह्मसमाज. देवेन्द्रनाथ इस सुदिनके अवसानमें "ग्रीष्मकालके | ब्राह्मसमाजकी शाखा गिनी जाती थीं। उनमें सद्भाव प्रखर रौद्र और झझावात" सहते हुए पूर्वोक्त वसन्तके अप्रतिहतरूपसे विद्यमान था। इसके बाद जो प्रयत्न मलयानिलका स्मरण करते रहते थे। हम भी ब्राह्म- हुए उससे ब्राह्मसमाजके सदस्योंने 'ब्राह्म' नामसे विशेषत्व समाजके इतिहासमें उस अंश तक आ पहुंचे हैं। पानेका उपक्रम किया। उनमें एक पृथक् सम्प्रदाय गठित ___ ब्राह्मसमाजके विषयमें इस वसन्त और ग्रीष्मकालके , होनेको प्रक्रियामें विवाद शुरू हुआ था। लक्षणकी आलोचना करना आवश्यक है। जब तक पहले उल्लेख किया गया है, कि राममोहन रायके ब्राह्मसमाजके सदस्यगण एक मतसे कार्य करते रहे, : पक्षपातशून्य निष्ठावान् एकेश्वरवादी होने पर भो, यूरोप तब तक मलयमारुतःप्रवाही वसन्तकाल समझना और अमेरिका वासी यूनिटेरियन क्रिश्चियन लोग उन्हें चाहिए। जबसे इनमें मतभेद हुआ और परम्पर विवाद ब्राह्मणजातिके चिहधारण और वेदभक्तिके कारण, कुसं. आरम्भ होने लगा, तबसे ब्राह्मसमाजमें झझावात समा- स्कारवर्जित और अपने सम्प्रदायमें शामिल नहीं समझ कुल ग्रीष्मकालके लक्षण दिग्वलाई देने लगे। सके थे। केशवचंद्र उन क्रिश्चियनोंके संसर्गमें और ___पहले ब्राह्मसमाजके सदस्योंमें किसी प्रकारका मत- उनके अभिमत संस्कारमें संवर्द्धित हुए थे, इसलिए भेद था ही नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। किन्तु जातिचिह्न उनकी दृष्टिमें नितांत धर्मविरुद्ध और असङ्गत उससे उनको व्याघात नहीं पहुंचता था। वे व्ययस्था। मालूम देता था। सिर्फ इतना ही नहीं, वे हिंदूसमाजकी पूर्वक मतभेद नहीं करते थे। जिसको हम आदि-ब्राह्म- सम्पूर्ण रीति-नोतियोंको ऐसा दृषित समझते थे, कि मानों समाज कहते हैं, उसका नाम पहले ब्राह्मसमाज हो उनका सम्पूर्ण संशोधन किये बिना धर्मरक्षाका कोई न था। इसके बाद मेदिनीपुर, ढाका और फिर बंबई उपायान्तर ही नहीं है। इसी विवेचनासे उन्होंने हिंदू- मद्राज आदि नगरों में जो ब्राह्मसमाज स्थापित हुए, उन्होंने समाजके आमूल संस्कारके लिए कृतसंकल्प हो कर उस- सामान्य मतभेदके कारण भी अपना नाम "ब्राह्मसमाज" का पुनर्गठन करना चाहा था और एकमात्र ब्राह्मसमाज- नहीं रखा है। किन्तु फिर भी वे समाज मूल की सहायतासे वह निष्पादित हो सकता है यह विचार कर वे प्रथमतः ब्राह्मसमाजको हो कई एक नियमोंसे जक-

  • आदि-ब्राहासमाजका पहले 'ब्राहासमाज' नाम कैसे पड़ा डनेका उद्योग करने लगे। इसके लिए शक सं० १७८६ के

था, यह बात पहले कही जा चुकी है। बाद में वैपयिक व्यवहार कार्तिक मासमें उन्होंने बाहरके समस्त ब्राह्मसमाजोंसे के लिये इस समाजका “कलकत्ता ब्राह्मसमाज" नाम अवधारित उन उन समाजके एक एक प्रतिनिधिको कलकत्ता हुआ था। केशवचन्द्रके भारतवर्षीय ब्राहासमाजकी चेष्टासे , बुलाया। अभिप्राय यह कि, उन प्रतिनिधियोंके अभि- अन्यान्य समाजकी भांति कलकत्ता-ब्राह्मसमाज भी तदन्तभुक्त मतसे फिलहाल ब्राह्मसमाजको सर्जा-कुसंस्कार-वर्जित समझी जायगी, यह आशङ्का उपस्थित होने पर इस समाजने करना और क्रमशः समस्त देशको विशोधित करनेका "आदि-बाहासमाज" नाम ग्रहण कर अपने वैशिष्ट्यकी रक्षा की। उपाय निर्धारण करना। इससे २४ मास पहले केशव- ___ १८६८ शकाब्दमें मेदिनीपुरमें करीब ५० सदस्योंने मिल्ल कर "ब्राह्म-सभा" नामकी एक सभा कायम की। तदानीन्तन थी। उस समय बम्बईमें भी "प्रार्थनासमाज" नामसे ब्राह्मसमाज- प्रभाकर-पत्रिकामे लिग्वा गया था कि, कलकत्ताको ब्रह्मसभाको की प्रतिष्ठा हो चुकी थी, जो कि अभी तक विद्यमान है। इसी तरह इस सभाके सभी काम रविवारकी रात्रिको सम्पादित होते तरह विद्वन्मोदिनी, तत्त्वज्ञानप्रदायिनी इत्यादि विविध नामोंसे हैं ।' १७७५ शकमें भवानीपुरमें 'सत्यज्ञान-सञ्चारिणी' नामसे एक ब्राह्मसमाजने बंगालके सर्व विभागोंमें शान और धर्मका विकाश ब्राह्मसमाजकी प्रतिष्ठा हुई। वह भी कलकत्ता-ब्राह्मसमाजके तथा नीति और सद्भावका प्रसार किया था। वर्धमान, चुंचड़ा, अनुरूप थी। १७८६ शकमें मद्रासमें 'वेदसमाज' स्थापित हुआ, चन्दननगर, वैद्यवाटी आदि स्थानोंमें 'बाहमसमाज' नामसे ही उससे 'तत्त्वबोधिनी पत्रिका' नामक एक पत्रिका भी प्रकाशित हुई इसका कार्य चला था।