पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६६०

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भक्त शक्रजिन्, नन्द, उपनन्द और भद्र आदि पार्षद दास-| सखा नामसे विख्यात हैं। ये अनेक तरहके खेल और वाहु- भक्त थे। ये मन्त्रणा तथा मारण्यादि कार्यों में नियुक्त युद्ध तथा दण्डयुद्ध आदि कौतुक द्वारा सर्वदा श्रीकृष्ण- रहते हुए भी किसी किमी समय परिचादि कार्यों को आनन्दित किया करते थे। प्रवृत्त रहते थे। कुरुवंशमें भीष्म, परीक्षित् और विदुर प्रियनर्म-सखा-प्रिय सखासे भी सब प्रकारसे श्रेष्ठ, आदिको भी पाष ददासभक्त कहा जाता है। अनुग- अत्यन्त रहस्य कार्य में नियुक्त तथा विशेष भावके रखने- दास भक्त ---जो सर्वदा स्वामीके सेवाकार्यमें दत्तचित्त वालेको ही प्रियनर्म-सखा कहते हैं। सुबल, अर्जुनगोप, रहता है उसे अनुग कहते हैं। यह अनुग दो प्रकारका गन्धर्व, वसन्त और उज्वल प्रभृति प्रियनम-सखाके है.-पुरस्थ और वजस्थ। नामसे विख्यात हैं। __ 'सुचन्द्रो मण्डलः स्तम्बःमुतम्बाद्याः पुरानुगाः'। श्रीकृष्णके गुरुवर्ग ही वत्सल-रसके भक्त थे। बज- सुचन्द्र, मण्डल स्तम्ब और सुतम्बादि पुरस्थ अनुग रानी यशोदा, ब्रजराज नन्द, रोहिनी. ब्रह्मा इन सबोंने दासभक्त हैं। रक्तक, पत्रक, पत्री, मधुकण्ठ, मधुवत, जिन गोपियोंके पुत्रों को हरण किया था, घे सब गोपी, रसाल, सुविलास, प्रेमकन्द, मरन्द, आनन्द, चन्द्रहास, देवको, देवकीको सपत्नीगण, कुन्ती. वसुदेव और सान्दी- पयोद, वकुल, रसद और शारद आदि व्रजस्थ अनुग पनि मुनि आदि श्रीकृष्णके गुरुवर्ग थे। प्रेयसीवर्ग दासमक्त हुए। मधुर रसके भक्त थे। कृष्णके सभी प्रेयसीवर्गमें वृष- सख्यरस-भक्त --पुरसम्बन्धी और व्रजसम्बन्धीके । भानुनन्दिनी श्रीराधिका हा सर्वप्रधाना थीं। भेदसे दो प्रकारका है। अर्जुन, भीम, और द्र,पद- 'प्रेयसीषु हरेरासु प्रवरा वार्पभानवी' नन्दिनी द्रौपदी और श्रीदाम आदि संख्यरसके पुर- पहले ही कहा जा चुका है, कि जो देवताओंके चरणों में सम्बन्धी भक्त कहे जाते हैं। तन मन समर्पण कर स्थिरचित्तसे उनकी आराधना- सुहृत्-सखा, सखा, प्रियसखा और प्रियनर्मसखाके में सदा नियुक्त रहते हैं, वे ही भक्त हैं। देवतामें प्रेम भेदसे वजस्थ सख्यरसके भक्तगण इन चार श्रेणियों में : अथवा भक्ति न रहनेसे भक्त नहीं हो सकता, अटल विभक्त हैं। श्रीकृष्णसे कुछ उनमें अधिक, वात्सल्यगन्धि विश्वास हो भक्तका पूर्ण लक्षण है । भक्तश्रेष्ठ नाभाजो- युक्त, सदा शस्त्र द्वारा दुष्टों से श्रीकृष्णकी रक्षा करनेवाले कृत 'भक्तमाल'-को टीकामें प्रियदासने लिखा है:- ही श्रीकृष्णके सुहृद सखा हुए। सुभद्र, मंडलीभद्र, हरि गुरु दास सो सांचो सोई भक्त सही भद्रवर्द्धन, गोभट, यक्षेन्द्रभट, भद्राङ्ग वीरभद्र, महागुण, गही एक टेक फिरि उतरे न टेरि है। विजय और बलभद्र आदि भी सहृद सखा थे। भक्ति रसरूप को स्वरूप है छवियार जिन लोगोंकी मित्रता कुछ सेवामिश्रित है, चारु हरि नाम लेत अश्रु बनि झरि हैं । जो कृष्णसे उम्र में कुछ कम और श्रीकृष्णके सेवासुख वही भगवन्त सन्तप्रीतिको विचार करे के अभिलाषी हैं वे ही सखा हैं । विशाल, वृषभ, भोजस्वी, धरे दूरि ईश ताहु पापडौनीसों करि है। देवप्रस्थ, वरूथप, मरन्द, कुसुमापीड़, मणिवन्ध, करन. गुरु गुरुताई की सचाई ले दिखाई जाहि धम, आदि सख्यरसके भक्तगण सखा नामसे | गाई श्रीपे हरिजू की रोति रङ्ग भरि है । विख्यात हैं, जो भक्त अविचलितचित्तसे हरिको गुरु, कह कर प्रियसखा--जिनकी मित्रता शुद्ध है अर्थात् जिसमें | जानते हैं वही श्रेष्ठ भक्त गिने जाते हैं । हृदयमें भक्ति- दास्य वा वात्सल्यका गन्धमान भी नहीं है, इस तरहके के स्वरूपका उदय होनेसे अनर्थ नाश और सर्व-स्वार्थ समवयस्क मिलोंको प्रियसखा कहते हैं । श्रोदाम, लाभ होता है। एकमात्र भगवान, भक्त और गुरुके सुदाम, दाम वसुदाम, किङ्कणी, स्तोककृष्ण, अंशु, भद्रसेन, चरणध्यानके बिना भक्तोंके मनमें और किसीसे भी विलासी, पुण्डरीक, विटंक और कलिविंक आदि प्रिय- प्रेमभाव स्थान नहीं पा सकता। जो स्वयं स्वार्थत्याग