पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६६२

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६५६ भक्त बने थे तथा उन्होंने पाण्डवपत्नी द्रौपदीकी लाज | साक्षात् पुक्कश भी पवित्र हो जाता है। हरिभककी पूजा रखी थी। जिस भक्त प्रेमसे उन्होंने वृषभानुसुता करनेसे ब्रह्मरुद्रादि भी उन पर प्रसन्न रहते हैं। भगवान् श्रीराधिकाका मानभान किया था, उसी भक्त-प्रेमसे भक्तिरूपमें ही लोकसमूहका विधान करते हैं। हरि- उन्होंने पालयिता यशोमतीके बन्धन और गोपपति नन्द- भक्तका नाम भी महत् है तथा ब्रह्मरुद्रादि पहलेसे भी के बाधावहन-लशको सा किया था । भक्तराज अकर उत्कृष्ट हैं। वे हरिभक्तिपरायण महात्मा सर्व धर्म के और विदुर भक्ति-साधनासे हो उन्हें पाया था। कर्ता बतलाये गये हैं। केशव जिन पर संतुष्ट रहते हैं, भक्तका मनोरथ पूर्ण करनेकी कामनासे उन्होंने भक्तवर वह यदि चण्डाल भी क्यों न हो, ब्रह्ममय होता है। वह प्रहादको प्रार्थना करने पर स्फटिकस्तम्भके मध्य नृसिंह भक्त ब्रह्मघाती होने पर भी पवित्र है। जिनके शरीरमें रूपमें हिरण्यकशिपुको दर्शन दिये थे। तप्तमुद्रादि भागवत चिह्न दिखाई देते हैं, तथा जो सर्वदा महाभारतके राजधर्म-पर्वाध्यायमें उन्होंने वलिसे हरिगुणगानमें रत हैं, वे ही कलिमें देवता समझ कहा है,- जाते हैं। "नित्यं यं प्रातरुत्थाय वैश्यावानान्तु कीर्तिनम् । ऊपरमें भक्तोंके लक्षण और महिमादिका वर्णन किया कुर्वन्ति ते भागवताः कृष्णातुल्याः कनौ बले ॥" (भारत) गया। अब साधन परम्परासिद्ध महिमसम्पन्न भक्तों- प्रात:काल में बिछावनसे उठ कर जो वैष्णवोंके नाम- के मध्य जो सामान्य प्रभेद लक्षित होता है, वही नीचे कीर्तन करते हैं, वे ही कलिमें भागवत और कृष्णतुल्य लिखा जाता है। जिनका अन्तःकरण अपने अभीष्टभाव समझे जाते हैं। पहले ही कहा जा चुका है में भावित है, उन्हें कृष्णभक्त कहते हैं। साधक और 'मद्भक्तानाञ्च ये भक्तास्ते में भक्ततमा मताः ॥' अतएव | सिद्धके भेदसे कृष्णभक्त दो प्रकारका है। भगवान स्वयं स्वीकार करते हैं, 'भक्तकी महिमा अपार है, तद्भावभावितस्थान्ताः कृष्णभक्ता इतीरिताः । जो विष्णुभक्तके दास और वैष्णवान्नभोजी हैं, वे ते साधकाच सिद्धाश्च द्विविधाः परिकीर्तिताः॥" निःशङ्कचित्तसे यशभुकोंकी गतिको पाते हैं । विष्णुभक्तकी बिल्वमलठाकुर एक साधक भक्त थे। उन्हीं के अर्चना सर्वतोभावमें श्रेयस्कर है। जो उसका विप- समान भक्त साधकभक्त कहलाते हैं। रीत आचरण करते हैं, वे दाम्भिक वा विष्णुवञ्चक हैं। "बिल्वमंगलतुल्या ये साधकास्ते प्रकीर्तिताः ।" पादोत्तरखण्डमें भागवत पूजनकी भूरि भूरि प्रशंसा की फिर जो किसी प्रकारका क्लेश जानते ही नहीं, गई है। दूसरी जगह भगवान् श्रीकृष्णने और भी जिनकी कृष्णार्थ ही समस्त क्रिया है और जो निरन्तर भक्तपूजाको अधिकता और अवश्य कर्त्तव्यता निर्देश को सर्वदा प्रेमसुखास्वादनमें रत रहते हैं, वे ही सिद्ध है। हरिभक्तोंके प्रिय व्यक्ति सबोंके लिये बन्दनीय हैं। भक्त है। जिसके घरमें वैष्णव भोजन करते हैं, वैष्णवसङ्गलाम "अविज्ञाताविलक्ले शाः सदा कृष्णाश्रिताक्रियाः। से उसका शरीर निष्पाप हो जाता है ; वहां कृतान्तरका सिद्धाः स्युः सन्तत-प्रेमसौख्यास्यादपरायणाः॥" भी अधिकार नहीं हैं। स्वयं भगवान् भक्तको रसनामें सिद्ध भक्त दो प्रकारका है-संप्राप्तसिद्ध और नित्य- रसास्वादन करते हैं। नारदपुराणमें भी विष्णुभक्तका सिद्ध । फिर संप्राप्तसिद्धके भी दो भेद हैं-साधन- माहात्म्य वर्णित है। श्रीमत् मध्वाचार्य ने लिखा है,--- सिद्ध और कृपासिद्ध। "भगवद्भक्तपादाब्ज पादुकाभ्यो नमोऽस्तु मे । साधनसिद्ध-जो भक्तिप्रभावसे क्लेशपरम्पराको यतसंगमः साधनश्च साध्यञ्चाखिलमुत्तमम् ॥" कवलित करके स्वयं चरणों में परिणत होते हैं, जो (हरिभक्ति विलास) मोक्षादिको और दूकपातमें भी घृणा बोध करत, पद्यावलोमें भी भगवद्भक्तोंके पादत्राण अवलम्बन जिनके उत्तरोत्तर वर्द्धमान प्रेमोत्सवसे अन्ताकरण स्तव- की कथा लिखी है। कृष्णभक्तिके दर्शन वा स्पर्शनसे कित और मानन्दा जलसे वदनमण्डल भाद्र और