पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६७०

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भक्ति जब तक चित्तमें भक्तिभावका उदय नहीं होता, असत् आदर्शसे जीवकी इन्द्रियभोगवासना बढ़ती है तब तक समयानुसार हरिकथा सुननेसे धीरे धीरे उसमें और किसी कारणसे भोगेच्छातृप्तिमें बाधा पहुंचनेसे आसक्ति बढ़ती है और धीरे धीरे भक्तिका बोज भी दृढ क्रोध होता है। क्रोधोदय होनेसे हो चित्त चञ्चल और हो जाता है । महात्माओंकी कृपा या भगवान्की कृपाकणा सदसबुद्धि विचारहीन हो जाती है। इसीसे मोहकी दृष्टि ही भक्तिका मुख्य साधन है। ओं महत्ममग्न दुर्नभा उत्पत्ति होती है । मोहवशतः चित्तके तमसाच्छन्न ऽगम्याऽमाधश्च ।” ( नारदमू० ३६ ) महत्मङ्ग दुर्लभ, अगम्य होनेसे चित्नमें जो संस्कारावस्थ विषय हैं, वे दिखलाई और अमोघ है। साधुको पहचाननेमें अपना अहोभाग्य नहीं पड़ते। सुतरां अपने मङ्गलसाधनका उपाय भी नहीं समझना चाहिए। साधुके सामने आने पर भी मनुष्य सूझता इस प्रकार स्मृतिभ्रश होनेसे बुद्धि विकल हो उन्हें नहीं पहचान सकते हैं। इसीलिए महत्सङ्ग दुर्लभ जाती और बुद्धिवैकल्य ही मनुष्यको इहलोक तथा पर है। साधुकी पहचान करने पर भी उनके माधनमिद्ध- लोकके कल्याणमार्गसे विच्युत कर देता है । पराभक्तिका भावके मध्य प्रवेश करना मुश्किल है ; अतएव महत्सङ्ग फल अनिर्वचनीय प्रेम है। अगम्य है। किन्तु साधुसमागम कदापि व्यर्थ नहीं होता, ओं अनिर्वचनीयं प्रेमरूपं । ओं मकास्थादवत् । ओं प्रकाश्यते अपने अधिकारानुरूप फल अवश्य ही मिलता है, इसी वापि पावे। ओं गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्द्ध मानमवि- कारण महत्सङ्ग अमोघ है। ओं लभ्यतेऽपि तत्कृपयव" । छिन्नं ममतरमनुभवरूपम् ॥” (नारदभक्तिस ० ५१-५४) ( नारदसू० ४० ) भगवानको कृपा होनेसे ही महत् अर्थात् प्रेमका स्वरूप मूकके रसास्वादनकी तरह अनिवच- सजनका सङ्ग होता है। ओं तस्भिन तजने भेदाभावात्" नीय है अर्थात् गूंगा जिस प्रकार मिष्टरस आस्वादन ( नारदसू० ४१) भगवान और भगवद्भक्तमें कुछ भी भेद कर आनन्दसे गद्गद् हो जाता और पूछने पर भी नहीं। भगवान भक्ताधीन हैं-भक्तियुक्त साधुका क्रिया- रसको व्याख्या नहीं कर सकता है, मनुष्य उसी प्रकार कलाप ही उनकी लीला है। भक्तोंके द्वारा ही संसारमें प्रमाविर्भावके समय आनन्दकी पराकाष्ठा पर पहुंच जाते उनकी महिमा प्रचारित होती है। भक्त उनमें और वे हैं, किन्तु वही भाव अनुभव करके भी दूसरेको समझा भक्तोंमें विराजमान रहते हैं। देने में समर्थ नहीं होते । इसलिए यह अनिर्वचनीय ओं तदेव साध्यता तदेय साध्यतां" (नारदसु० ४२) उनकी है। यह गुणवर्जित. कामनातीत, प्रतिक्षण वद्धमान, साधना करो, उनकी साधना करो। नारदने भक्तिलाभका अविच्छिन्न, सूक्ष्म और केवल अनुभवस्वरूप है। भक्त दुसरा उपाय न देख और दूसरे किसी प्रकारसे जीयकी उसे प्राप्त कर वही देखते, वही सुनते, वही बोलते और गति नहीं होगी, ऐसा जान कर तपके प्रभावसे भक्तिको उसीको चिन्ता करते हैं। प्रेमिकाके सामने प्रेममय हो साधन-समुद्रका अमूल्यनिधि समझाया था और जीवों भगवान्का स्वरूप तथा प्रेमका स्वरूप दोनों एक ही की भलाई के लिए वारम्वार भक्ति साधन करनेका उपदेश पदार्थ हैं। जिन्होंने प्रेम लाभ किया है, उन्होंने भग- दिया है। वान्को भी पाया है । सुतरां इसके सिवा उनकी और किस किस कारणसे भक्तिका वीज हृदयमें अंकुरित कुछ देखने, सुनने, बोलने या चिंता करनेकी इच्छा नहीं नहीं हो सकता, इसकी आलोचना नीचे की जाती है। होती। दृषित कर्म कर से प्रकृति दूषित होती हैं, अतः भक्ति- ओं तत्प्राप्य तदेवावलोयति तदेव शृणोति तदेव भाषयति लाभेच्छुकको पहले कुसङ्गका परित्याग करना चाहिए। तदेव चिन्तयति ।” (नारदसू. ५५) "ओं दुःसङ्गः सर्वथैव त्यज्यः” “ओं कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रश- ऊपर पराभक्तिका विषय आलोचित हुआ। अब बुद्धिनाश सर्वनाशकारणत्वात् ।" (नारदस० ४३, ४४) नौणभक्तिका विषय वर्णन किया जाता है। ___ कुसङ्ग हो काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रश, बुद्धिनाश “ओं गौणी विधा गुणभेदादा"दि भेदाद्वा" और सर्वनाशका कारण है। कुसङ्गीफ कुपरामर्श तथा (नारदसू० ५६)