भक्ति
भक्ति पराभक्तिकी भित्तिस्वरूप है। पराभक्तिको मत है, कि अनुराग दुःखका कारण है, सुतरां इसे त्याग
साधना करने में जो नाना प्रकारके विघ्न उपस्थित हो कर करना ही श्रेय है। कारण, सत्सङ्गकी तरह इसका आश्रय
साधकको भक्तिमार्गसे विच्युत कर देते हैं, गौणीभक्ति उत्तम है। मनुष्योंके मध्य परस्परमें अनुरागका जो
उन्हीं विघ्नराशियोंको विनष्ट कर पराभक्तिलाभका पथ सञ्चार है, उससे वियोगजन्य दुःख हुआ करता है, किन्तु
प्रस्तुत करती है। यहां पर जो भक्तिपद व्यवहृत हुआ ईश्वरानुरागमें इसके होनेको सम्भावना नहीं; क्योंकि
है, वह गौणी-भक्तिका प्रतिपादक है।
ईश्वरके न वियोग है और विच्छेद हो । कुसङ्ग करनेसे दुःख
"रागार्थप्रकीर्तिसाहचर्याच्चेतरेपाम् ” (शाण्डिल्यसु० ५७) मिलनेको सम्भावना रहती है, परन्तु सत्सङ्गमें दुःखको
नमस्कार, नामकीर्तनादिका फल केवल अनु- कुछ भी आशङ्का नहीं है। स्त्री-पुरुषके अनुरागमें दुःखको
राग है। भगवान्की लीलाभूमिका दर्शन, भगवत् मूर्ति- आशङ्का है, किन्तु उसका त्याग करना उचित नहीं ।
की सेवा, अङ्गराग प्रभृति सब प्रकारकी सेवा केवल : ईश्वरामुराग परम सुखकर और मनुष्यका एकान्त प्रार्थ-
ऐकान्तिक अनुराग लाभ करनेके लिए है। गौणी-भक्ति : नीय है। अतएव भक्ति ही एक मात्र श्रेष्ठ है।
द्वारा पवित्रता लाभ होती है। श्रद्धापूर्वक भगवत्सेवा "नैव श्रद्धा तु साधारण्ययात्" "तस्यां तत्त्वोचानवस्थानात्"
करते करते अन्तःकरणकी वृत्तियां परिशुद्ध हो जाती
(शापिडल्यसू० २४,२५)
हैं और चित्तशुद्ध होनेसे निर्मल भक्तिका अभ्युदय होता भक्ति और श्रद्धा एक नहीं है, क्योंकि श्रद्धाका साधा-
है। इसीलिए किसी किसी आचार्यने गौणीभक्तिकी रणत्व दिखलाई पड़ता है। कर्ममें श्रद्धा, उपासनामें श्रद्धा,
प्रधानता स्वीकार को है।
। शास्त्र वाक्यमें श्रद्धा इत्यादि प्रकारसे श्रद्धाका साधारणत्व
बहुतेरे शान बड़ा है या भक्ति इस विषयको ले कर नजर आता है। किंतु भक्ति भगवान्को छोड़ कर और कहीं
तक वितर्क करते हैं। शाण्डिल्य सूत्र में इसका सिद्धान्त भी नहीं रह सकती। श्रद्धा और भक्तिकी एकता सम्या-
इस प्रकार देखनेमें आता है, --ज्ञानादि सभी साधन हो दन करनेमें अनवस्थाका दोष हुआ करता है। अमुक
भक्तिसाधनके उपादानस्वरूप हैं। ज्ञान और भक्ति . व्यक्तिने श्रद्धापूर्वक देवपूजा की है, ऐसा कहनेसे श्रद्धा
दोनों ही साधन तथा साध्यके भेदसे दो प्रकारके हैं। देवपूजाका एक प्रधान अङ्ग समझा जाता है। किंतु
ज्ञान द्वारा वस्तुका जो परिचय उपलब्ध होता है, वह । भक्ति वैसी नहीं, यह सभी साधनका एकमात्र शेष फल
'साधनज्ञान' और ज्ञान, ज्ञय तथा ज्ञानके अतीन जो ज्ञान है। अतएव सभी साधनाओंकी अपेक्षा केवल भक्ति
है, वह साध्यछान' है, यह ज्ञानस्वरूप हो ब्रह्म है । भक्ति ही श्रेष्ठ है। गीतामें स्वयं भगवान्ने कहा है, कि ज्ञान
द्वारा शास्त्रादि पाठ और देवार्चनादिमें जो प्रवृत्ति होती , और कर्मसे मेरी भक्ति ही श्रेष्ठ है ।
है, वह साधनभक्ति या गौणी भक्ति कहलाती है तथा हरिभक्तिविलासमें भक्तिका विषय इस प्रकार
ज्ञानयोगादि द्वारा भगवत्दर्शन के बाद मुक्तिलाभ करने लिखा है -
पर भगवान्को कृपादृष्टिसे जो प्रीतिका सञ्चार होता है. भक्तिका सामान्य लक्षण-जो सब इन्द्रिय बाहर हैं
उसका नाम पराभकिन या साध्याभक्ति है । साधन द्वारा और जिनकी सहायतासे शब्द, रूप और रस प्रभृतिका
साध्याभक्ति लाभ और साधन भक्ति द्वारा साध्य ज्ञान- वोध होता है, सत्त्वमूर्ति हरिके प्रति उन सबोंका जो
लाभ होता है अबस्थाके भेदसे दोनोंके ही लाघव तथा म्वाभाविक वृत्तिस्फुरण है वही भगवद्भक्ति है।
गोरव है। यथार्थमे साध्यज्ञान और पराभक्तिमें कुछ भी इन्द्रियोका यह वृत्तिस्फुरण वेदप्रतिपादित कर्मानुष्ठानके
विभेद नहीं --यह भक्ति और ज्ञान दोनों ही एक हैं। सिवा प्रादुर्भूत नहीं होता।
"हेया रागत्वादिति चेन्नोत्तमास्पदत्यात् संगबन्"
साधनभक्तिका लक्षण भगवद्भक्तोंके प्रति
( शाण्डिर य सूत्र २१) वात्सल्य, उनको अर्चनाका अनुमोदन, दम्भरहित हो
भनुरागका नाम भक्ति है। किसी किसी ऋषिका । कर श्रद्धापूर्वक उनकी पूजा, उनकी लीलाए' सुननेमें
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६७२
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