पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६७३

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भक्ति ६६७ अनुरक्ति, उनके आगे नृत्यगीतादि, प्रतिदिन उनका नाम- प्रेमभक्तिका चिह-जब आनन्दातिशय्यनिबन्धन स्मरण और उन्होंके नामले जोवनधारण करना जो पुलक और प्रेमाश्रु प्रकाशित होता है, जब मनुष्य गद्- इन आठ प्रकारके भक्तियोगका अनुष्ठान करते हैं, वे गदचित्त हो ऊर्ध्वकण्ठसे कभी आनन्दध्वनि, गोत, रोदन नीच होने पर भी श्रेष्ठ हैं। जिनकी-देवतामे, मंत्रमें और नृत्य ; कभी ग्रहाभिभूतकी तरह हास्य, रोदन, ध्यान और मंत्रदाता गुरुमें उक्त आठ प्रकारकी भक्ति है, और बन्दना करते अथवा कभी दीर्घनिश्वासका परित्याग भगवान उन्हींके प्रति प्रसन्न होते हैं। विष्णुका नाम, ! कर हे हरे ! हे जगत्पते । हे नारायण ! यह नाम लीलादि श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पदसेवन, अर्चन, बन्दन, उच्चारण करते हुए लजारहित हो रहते हैं, तब भक्त कर्मार्पण, सख्य तथा आत्मनिवेदन यह नवलक्षणान्विता सभी बन्धनोंसे मुक्त हो जाते हैं। भगवद्भावमें उनका भक्ति यदि भगवान्में समर्पित हो, तो भक्त कृतकृताथ अन्तःकरण और वाह्य शरीर लगा रहता है। यहां तक, होते हैं। हरिका शङ्खचक्र लिखन ऊर्ध्वपुण्ड धारण, कि उस समय सातिशय भक्तिनिवन्धन उस व्यक्तिका विष्णुमंत्र ग्रहण, उनकी अर्चना, जप, ध्यान, स्मरण, : अज्ञानभाव और वासना एकवारगी निःशेषरूपसे दग्ध नामकीत्तन, श्रवण, बन्दन, पदसेवा, पादोदक धारण, । हो कर भक्तिपथमें गमनपूर्वक भगवानको प्राप्त करते उनका निवेदित प्रासादग्रहण, वैष्णवोंकी सेवा, द्वादशी । हैं। (हरिभक्तिविलास ११ वि०) व्रतमें निष्ठाभाव और तुलसीरोपण भगवान् विष्णुमें : उत्तमा भक्तिका लक्षण-श्रीकृष्णसम्बन्धी अनुकूल ये सोलह प्रकारकी भक्तिव्यवस्था कही गई है । भगवान्- | अनुशीलनको भक्ति कहते हैं। यह अनुशीलन ज्ञान का मूर्तिसन्दर्शन, मथुरा, वृन्दावन आदि तीर्थक्षेत्रमें और कर्मादि द्वारा अनाहत तथा अन्य वस्तुके प्रति स्पृहा- गमन, भ्रमण और अवस्थिति, धूपावशेषादिका आघ्राणः . शून्य होनेसे उत्तमा भक्ति कही जाती है । ( भक्तिर० सि०) निर्माल्यग्रहण, भगवान्के आगे नृत्य, वीणावादन, कृष्ण इन्द्रिय द्वारा तत्परत्वरूप अर्थात् अनुकूलतारूपसे लीला आदिका अभिनय, भगवान के नामश्रवणमें तत्प- | हृषीकेशको सेवाको भक्ति कहते हैं । इस सेवनका सर्वो- रता, पद्म और तुलसीमाला धारण, एकादशी प्रभृति । पाधि-रहित अर्थात अन्याभिलापिता-शन्य तथा निर्मल रातिमें जागरण, भगवान के उद्देश्यसे गृहनिर्माण तथा अथवा ज्ञानकर्मादिसे अनावृत होना आवश्यक है। भक्ति- यात्रामहोत्सव प्रभृति भी भक्तिके लक्षण कहे जाते हैं। शास्त्रमें यह षड़गुणान्वितके जैसा कीर्तित हुआ है। श्रवणादि विषयक जिन सब भक्तिके लक्षण लिखे यथा . गए हैं उनमेंसे कुछ प्रधान और कुछ अप्रधान हैं। ___क्लेशनी, शुभदा, मोक्षलघुताकृत्, सुदुलभा सान्द्रा- कारण, प्रेमसाधन सम्बन्धमें पूर्वोक्त लक्षणसमूहके मध्य नन्दविशेषात्मा और श्रीकृष्णाकर्षणो ये सब उत्तमाभक्ति कितनेको तो बहिरङ्ग और कितनेको अन्तरङ्ग समझना हैं। पाप, पापके बीज और अविद्याके भेदसे शनी चाहिए। जिस प्रकार सत्त्व, रज और तमोगुणके भेद- तीन प्रकारको है। जो भक्ति अप्रारब्ध और प्रारब्ध से जोवको विभिन्नता देखी जाती है, उसी प्रकार भक्तों- पाएरूप क्लेशसमूह नष्ट करती है, वह क्लेशनी कह- की भक्तिके अनुष्ठानको भिन्नता होती है। प्रेमभक्ति लाती है। सिद्ध होनेसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप सभी प्रकारके पुरुषार्थ सेवककी तरह काम करते हैं। सम्पूर्ण जगत्का प्रीतिविधान, सवोंमें अनुराग, प्रेमभक्तिके लक्षणके विषयमें नारदपञ्चरात्रमें लिखा सद्गुण और सुख इत्यादि शुभदान करनेका नाम शुभदा- है, कि जिस काममें अपनापन भाव न रहे, जिसमें भग- भक्ति है। भक्तिसे 'सुखं वैषयिकं ब्राह्ममैश्वरञ्चेति वत्प्रमरस-ममता अर्थात् भगवान ही मेरे इस शानक तत्त्रिधा।' वैषयिक सुख, ब्रह्मसुख और ऐश्वरसुख लाभ होता है। परिचय है, उसीको भोष्म, प्रह्लाद, उद्धव और नारदर्गद भक्तोंने प्रेमभक्ति बतलाया है। प्रेमभक्तिका माहात्म्य जिनक हृदयम थाड़ा-सा भा भगवद्गात उादत हुई भक्तिके माहात्म्यकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। है, वे धर्म, अथ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थको