पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भक्त तृणतुल्य समझते हैं। भक्तकी मोक्षकामना नहीं रहने | "वैधीरागानुगा चेति सा द्विधा साधनाभिधा " पर भी भक्तिकी मोक्षलघुकारिताका लक्षण प्रकाशित भक्तिरसामृतसिन्धुवर्णित उक्त ६४ प्रकारकी वैधी होता है। भक्ति ये हैं, यथा-- भक्ति सुदुल भा है। सङ्गरहित हो कर चिरकाल "गुरुपादाश्रयस्तस्मात् कृष्णादीक्षादिशिक्षणं । . साधन करने पर भी अलभ्या और श्रीकृष्ण द्वारा आशु विश्रम्भेण गुरोः सेवा साधुवम॑नुवर्त्तनं ।। अदेयाके भेदसे सुदुल भा दो प्रकारको है। सद्धर्मपृच्छा भोगादित्यागः कृष्णस्य हेतवे । साधनसमूह द्वारा भी भक्ति लाभ नहीं होती। निवासो द्वारकादी च गङ्गादरपि सन्निधौ । शानसे मुक्ति और यज्ञादि पुण्यकार्य से भक्ति व्यवहारेषु सर्वषु यावदर्थानुवर्तिता। लाभ होती है ; किन्तु हजारों साधन द्वारा भी हरिवामरसम्माना धात्र्यश्वत्थादिगौरव । हरिभक्ति मिलना बड़ो मुश्किल है। यही अलभ्या एषामत्र दशाङ्गानां भवत् प्रारम्भरूपता। भक्ति है। मंगत्यागी विदूरेगा भगद्विगुरवेजनैः । ___ भागवतके पाचवें स्कन्धमें श्रीकृष्ण द्वारा वर्णित शियाधननुवन्धित्वं महारम्भाद्यनुद्यमः । अदेया भक्तिका विषय इस प्रकार लिखा है, शुकदेवने बहुग्रन्थफलान्यास-व्याख्यावादविवर्जनं ॥ एरीक्षितसे कहा, 'हे राजन्! भगवान् मुकुन्दने आपके व्यवहारेऽप्यकार्पण्यं शाकाद्यवशवतिता। और यादवोंके पति, गुरु, दैव, प्रिय, कुलपति तथा कभी अन्यदेवानवज्ञा च भूतानुद्व गदायिता ।। कभी दाम हो कर दौत्यकार्य भी किया है। वे भजनशील सेवानामापराधानामुद्भवाभावकारिता । व्यक्तिको मुक्ति देते थे पर भक्ति नहीं। इससे भक्तिकी कृपगातद्भक्तावित पविनिन्दाद्यसहिष्णुता ॥ सुदुर्लभता ही प्रतिपादित होती है। (भा०५।१६।१८ ) व्यतिरेकतयामीपा दशानां स्यादनुष्ठितिः । प्रह्लादने श्रीनृसिंहदेवसे कहा था---'हे जगद्गुरो ! मैं अस्यास्तत्र प्रवेशाय द्वारत्वेऽप्यङ्ग विशतेः । आपके दर्शन पा कर विशुद्ध आनन्दसागरमें डूब गया त्रयं प्रधानमेवात्र गुरुपादाश्रयादिकं । है, अभी ब्रह्मानन्द सुख भी मुझे गोस्पदके समान धृतिष्यावचिहाना 'हरेनामान्तरस्य च ॥ मालूम होता है। इसके द्वारा ब्रह्मानन्द सुखसे सान्द्रा निर्माल्यादेश्च तस्याग्रे ताण्डवं दगडवन्नतिः । नन्द-विशेषात्मा भक्तिसुखका प्रधानता सावित हुई। अभ्युत्थानमनुव्रज्या गतिस्थाने परिक्रमाः ॥ श्रीकृष्णने उद्धवसे कहा था, 'हे उद्धव! मद्विष. अर्चनं परिचर्या च गीतं सङ्कीर्तनं जपः। मिणी विशुद्ध भक्ति मुझे जैसा वशीभूत कर देती हैं, विज्ञप्तिः स्तवपाठश्च स्थादो नैवेद्यपाद्ययाः ।। योग सांख्य, धर्म, वेदाध्ययन, तपस्या और दान प्रति धूपमाल्यादिसौरभ्यां श्रीमूर्तिस्पृष्टिरीक्षणं । पैसा बशीभूत नहीं कर सकता। यही श्रीकृष्णाकर्जागो आरत्रिकोत्सवादेशश्च श्रवणं तत्कृपेनगं ॥ भक्ति है। स्मृतिानं तथा दास्यं सख्यमात्मनिवेदनं । ___ भक्तिसं भगवान् आकृष्ट होते हैं, ऐसा उन्होंने स्वयं निजप्रियोपहरणां तदर्थेऽखिलचेष्टित ॥ कहा है। मर्वथा शरणापत्तिस्तदीयानाञ्च सेवन । "सा तसाधनं भावः प्रेमा चेति त्रिधोदिता।" तदीयास्तुलसी शास्त्रमथुरावैष्यावादयः। ___ उपयुक्त उत्तमा साधन, भक्तिभाव और प्रेमके भेदः । यथा वैभवसामग्री सद्गोष्ठीभिर्महोत्सवः ॥ से तोन प्रकारको है। "कृतिसाध्या भवेत् साध्यभावा ऊर्जादरविशेषेण यात्रा जन्मदिनादिषु ॥ सा साधनाभिधा।" इन्द्रिय प्रेरणा द्वारा साध्याभक्तिको श्रद्धा विशेषतः प्रीतिः श्रीमूर्तरधि सेवने । साधनभक्ति कहते हैं। इस साधनभक्तिके वैधी और श्रीमद्भागवतार्थानामास्थादा रसिकैः सह । रागानुगा नामक दो भेद हैं। सजातीयाशये स्निग्धे साधौ स'गः स्थतो अरे :