पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६७८ भगना-भगन्दर भगना (हि.पु.).बहिनका लड़का, भानजा। ता है। भगनी (हिं० स्त्री० ) भगिनी देखो । - उस समय उन छिद्रोंसे फेनयुक्त लगातार आलाव भगनेवघ्न (हिं० पु०) शिवका नामान्तर। निकलता रहता है और चुनचुनाहट मालूम पड़ती भगन्दर (सं० पु.) भगं गुह्यमुष्कस्थानं दारयतीति है। पीछे मलद्वार विदीर्ण होने पर उन छिद्रोंसे वात, दू-णिच् (पूः सर्व योगर्दारि महोः । पा २।२।४१) इत्यत्र 'भगे च मूल, पुरोष और रेतः निसृत होता रहता है । दारेरिति वक्तव्यम्' इति काशिकोक्त खच ( स्वचि हुन्नः। उपग्रीव-भगन्दरके लक्षण---पित्त कुपित और वायु पा ६।४।६६ ) इति ह्रस्वः, मुम्च । अपानदेशका व्रणरोग . द्वारा अधोभागमें सञ्चालित हो कर पूर्वको भांति मल- विशेष, एक रोगका नाम । द्वारमें अवस्थित रह कर रक्तवर्ण, सूक्ष्म, उन्नत और वैद्यकशास्त्रमें इस रोगके निदान और चिकित्सादि- उष्ट्रप्रीवा-सदृश पीड़का उत्पन्न होती है। उसमें उष्णता, का विषय इस प्रकार लिखा है। दाह आदिकी वेदना होती और प्रतीकार न करनेसे पक गुह्यदेशके दो अंगुल-परिमित पाश्ववती स्थानमें जाती है । उस व्रणमें अग्नि और क्षारसे जल जानेके जैसा नारि-व्रणकी भांतिका जो क्षत उत्पन्न होता है, उसे . दाह होता है तथा उष्ण और दुर्गन्धयुक्त आस्त्राव भगन्दर कहते हैं। कुपित वातादिदोष प्रथमतः , निकलता रहता है । उसकी परवाह न की जाय, तो वात, उस स्थानमें एक व्रणशोथ उत्पन्न करता है, बादमें मूत्र, पुरोष और रेतः भी निगृत होने लगता है। उसके पक कर फुट जाने पर वहांसे सुख रंगका परित्रावी भगन्दरके लक्षण -श्लेष्मा कुपित और फेन और पोव आदि निकलने लगती है। क्षत वायु द्वारा अधोभागमें सञ्चालित हो कर पूर्ववत् गुह्य- अधिक होनेसे यहांसे मल और मूत्रादि भी निकला देशमें अवस्थान पूर्वक शुकुवर्ण कण्डुयुक्त पीड़का करता है। गुह्य देशमें किसी प्रकारका क्षत हो कर उत्पन्न करता है। प्रतीकार न करनेसे पक जाती है। पहले पक जाय, तो उसे भी भगन्द्र रूपमें परिणत होते वण कठिन और कण्डयुक्त होता है, पोछे उससे अधि. देखा गया है । सुश्रुतके पढ़नेसे मालूम होता है कि, वात, · कतासे चिकना आस्त्राव निकलता है। ऐसी अवस्थामें पित्त, कफ, सन्निपात और आगन्तु इन पांच कारणोंसे लापरवाही करनेसे व्रणसे वात, मूत्र, पुरीष और रेतका शतपोनक, उष्द्रग्रीव, परिस्रावी, शम्बुकावर्त और निकलना प्रारम्भ हो जाता है। इसे परित्रावी भगन्दर उन्मागीं ये पांच प्रकारके भगन्दररोग उत्पन्न होते हैं। कह सकते हैं। भग, मलद्वार और वस्तिदेशको विदार्ण करता है, इस शम्बुकावर्त भगन्दर---वायु कुपित हो कर कुपित लिए इसका नाम भगन्दर पड़ा है। भगद्वारमें जो व्रण पित्त और श्लेष्माको ले कर अधोभागमें जाती है और वहां होता है, वह नहीं पका तो 'पोड़का' और पक गया तो पूर्ववत् अवस्थित रह कर पादांगुष्ठ परिमित विभिन्न 'भगन्दर' कहलाता है। कटि और कपालमें वेदना प्रकार लक्षणविशिष्ट पोडका उत्पन्न करती है। उसमें तथा मलद्वारमें कण्डु, दाह और शोथ ये भगन्दरके पूर्ण- तोद, दाह और कण्ड आदि पीड़ा होती है । उपयुक्त लक्षण हैं। प्रतीकार नहीं करनेसे पक जाती है और व्रणसे नाना- शतपोनक-भगन्दरके लक्षण -अपथ्य सेवनशील वायु वर्णका आस्त्राव निकलता रहता है। कुपित हो कर मलद्वारके चारों तरफ एक या दो अंगुलि-: उन्मार्गी भगन्दर-मांस लोलुप व्यक्ति यदि अन्नके प्रमाण स्थानके मांस और शोणितको दूपित कर रक्त- साथ अस्थिशल्यको भी खा जाय, तो यह मलके साथ वर्णकी पीड़का उत्पन्न करता है। उसके द्वारा मलद्वारमें मिश्रित हो कर अपानवायु द्वारा अधोभागमें सञ्चालित तोद आदि यातनाएं होती हैं। शीघ्र ही इसका प्रती- होता और निकलते समय मलद्वार में क्षत उत्पन्न करता कार न किया जाय, तो यह पक जाती है । मूलाशयके है। आद्रभूमिमें जैसी कृमि होती है, उसी तरहकी साथ संयोग रहनेसे व्रण क्लव-युक्त तथा शतपोनककी कृमि क्षतस्थानमें हो जाती हैं। कमियां मलद्वारके पार्श्व-