पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६८७

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. मगन्दर चाहिए। भीरु वा कोमलप्रकृति व्यक्तिको शतपोनक बालकको वाह्यमुख वा अन्तर्मुख किसी भी प्रकार भगन्दर होने पर आरोग्य होना दुष्कर है। इस रोग- भगंदर होने पर विरेचन, अग्नि, क्षार वा शस्त्र हितकर में शीघ्र ही वेदना और आस्राव नाशक व दका प्रयोग नहीं है। जो औषध कोमल और तीक्ष्ण हों, उनका ही करना उचित है । कृशरा वा खीरका खेद अथवा प्रयोग करना उचित है। आरग्वध हरिद्रा और नील- लाव, तित्तिर आदि ग्राम्य और सजलदेश पशुके मांस- चूर्णको मधु और घृतमें फेट कर वर्तिकाके आकारमें के सहयोगसे वृक्षादनी, एरण्ड और विल्द्वादिगणका व्रण पर प्रयोग कर शोधन करना चाहिए । इस प्रयोगसे क्वाथ या चूर्ण स्नेह कुम्भमें रख कर व्रणमें स्वेद व्रणकी नाली.शीघ्र ही आरोग्य हो जाती है । आगंतुक दिया जाता है। तिल, एरण्ड, तोसी, उड़द, जौ, गेह भगंदरमें नाली होनेसे शस्त्र द्वारा छेद कर जाम्बोष्ठ सरसों, नमक और अम्लवर्ग, इन सबको स्थालीमें शलाका दाहन-पूर्वक अग्निवर्ण करके घणस्थानको दग्ध रख कर रोगीको स्वेद दे सकते हैं। स्वेद दिये जाने करे, तथा आवश्यक होने पर कृमिनाशक और शल्य के बाद कुष्ठ, नमक, वच हिंग और अजमोटा आदि अपनयनविधिके अनुसार कार्य करे। भ्रमणशील व्यक्ति- को समान भागमें घृत, द्राक्षा वा अम्लरस, सुरा के लिए यह रोग असाध्य है। भगन्दरमें शत्रपात जन्य अथवा काजीके साथ सेवन कराओ। उसके बाद | यदि वेदना हो, तो उस पर उष्ण अणुतैल परिषेचन प्रणमें मधुकतैल सेचन और मलद्वारमें वायुरोग-नोवा करना चाहिए; अथवा स्थालीमें वातघ्न औषध भर कर रक तैलका परिषेचन करो। इस प्रकार प्रतीकार करनेसे उसके मुखको छिद्रयुक्त ढकनसे ढक दे, पीछे मलमूत्र अपने मार्गसे निकलेंगे तथा अन्यान्य तीव्र उप रोगीको विठा कर और उसके मलद्वारमें घृत सेचन कर द्रवोंकी भी शान्ति हो जायगी । उसमें स्थालोस्थ द्रष्यका उन्ण स्वेद देना चाहिए । अथवा उष्ट्रप्रीव नामक भगन्दरमें एषणी द्वारा छेदन कर रोगोको लिटा कर नलके द्वारा वेदना शान्ति कर नाड़ी क्षार दे देना चाहिए। पश्चात उसमेंसे प्रति मांसको स्वेद भी दिया जा सकता है। निकाल डालो और अग्निदग्ध करो । पूति मांसके त्रिकटु, वच, हिङ्ग, लवण, श्यामा, दन्ती, निवृत, निकल जाने पर तिल पीस कर घीके साथ उस पर तिल, कुष्ठ, शतमूली, गोलोमी, गिरिकर्णिका, कसीस, प्रलेप दो और बांध कर घी परिषेचन करो। तीन दिन | काञ्चनवृक्ष और क्षीरी वर्ग, इनसे भगन्दर-व्रण संशोधित बाद खोलो, यदि व्रणमें कोई दोष दिखाई दे तो पहले किया जाता है। त्रिवृत्, तिल, नागदंती और मजिष्ठा उसका संशोधित होने पर यथाविधि रोपण करना | इनको दुग्धके साथ मिला कर मधु और सैधव-सहित उचित है। प्रयोग करनेसे भगन्दर व्रणका नाश होता है। रसाञ्जन, परित्रावी भगन्दरमें रसरक्तादि आस्त्रव होता रहे तो हरिद्रा, दारुहरिद्रा, मञ्जिष्टा, निम्वपत्र, निवृत्, गज- उसके मार्गको छेद कर क्षार वा अग्नि द्वारा दग्ध करो। पिप्पली और दंती इनके कक्ल प्रयोगसे भगन्दरका नालीत्रण पोछे उसमें कुछ उष्ण अणुतैलका प्रयोग कर वमनीय आरोग्य होता है। कुष्ठ, निवृत, तिल, दंती, पिपल, औषध द्वारा अल्प परिमाणमें परिषेचन करो। इस प्रकार सैधव, मधु, हरिद्रा, त्रिफला और तुत्थ आदि प्रण के प्रतीकारसे प्रण कोमल तथा वेदना और आस्त्राव | शोषणके लिए लाभकारी है। पीपल, यष्ठिमधु, लोध, हास होने पर उसके मुखशोषके अन्वेषण पूर्वक छेदन कुट, इलायचो, रेणुका, मजोड, धातकी पुष्प, श्यामलता, कर अग्नि द्वारा भली भांति दग्ध करो । खजरपत्र, हरिद्रा, दारहरिद्रा, प्रियङ्ग, सरस, पद्मकाष्ठ, पद्मकेशर, भर्द्धचंद्र, चक्र, सूचीमुख और अवाङमुख आदिके आकार कलिचूर्ण, वच, लाङ्गलकी, मोम और सैंधव आदिका में भगन्दर छेदन किया जाता है। प्रयोजन होने पर पुनः तैल-पाक करके प्रयोग करनेसे भगन्दररोग शीघ्र प्रशमित क्षार द्वारा भी दग्ध कर सकते हैं। उसके बाद व्रण अब होता है। (सुश्रुत चिकि० ८ अ.) कोमल हो जाय तब उसका संशोधन करना चाहिए। भैषज्य रत्नावलीमें भगंदररोगाधिकार में सप्तविंशतिक Vol. xv. 171