पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६८८

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६५२ भगन्दरहररस-भगवत् गुग्गुल, विष्यन्दन तैल, करवीराद्यतैल, निशाद्य तैल, भगरना ( हिं० क्रि०) खत्तेमें गर्मों पा कर अनाजका सड़ने सैन्धवाद्य तैल, नारायण रस, चित्रविभाण्डक रस, ताम्र लगना। प्रयोग तथा विविध मुष्टियोग लिखे हुए हैं । रसेंद्र- भगल ( स० त्रि०) भग तद्व्यापार लात्रि ला-क । भग- सारसंग्रहमें इस रोगके प्रकरणमें वारिताण्डवरस और व्यापारग्राहक । भगंदरहर रसका उल्लेख है। भगल (हि० पु० ) १ कपट, ढोंग । २ हाथको सफाई, प्रस्तुत प्रगालियां उन्हीं शब्दोंमें देखो। जादू । गरुड़ पुराणमें अर्श और भगंदर रोगोपशमकी भगली ( हि० पु०) १ छली, ढोंगी। २ बाजीगर । औषधि इस प्रकार कही गई है:- भगवती ( सं० स्त्री०) भग-मतुप्, ततः स्त्रियां डीप। १ "अटरूपकपलंण घृतं मृमिना पचेत् । पूज्या । २ गौरी । ये प्रकृतिस्वरूपिणी महामाया चूर्ण कृत्वा तु लोपोऽयं अओरोगहरः परः ।। देवी हैं । गुग्गुलु त्रिफलायुक्तं पीत्वा नश्येद्भगन्दरम् ॥" "ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा। (ग० १८८३-४) बलादाकृष्य मोहाय महिमाया प्रयच्छति ॥" भगन्दरहररस ( स० पु० ) रसौपधविशेष । प्रस्तुन (मार्कपु०८१४२) प्रणाली--पारा एक भाग और गन्धक दो भाग इन्हें ३ सरस्वती । ४ गङ्गा । ५ दुर्गा । घृतकुमारीके रसके साथ तोन दिन घोंट कर ताम्र और आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्व मिथ्येव कृत्रिमम् । लौहको तुल्यरूपमें मिश्रित करे। पीछे एक बरतनमें रख दुी रात्यस्वरूपा सा प्रकृतिर्भगवान् यथा ॥ कर दो पहर तक स्वेद दे। वादमें उस भस्मको कागजी सिद्धपश्चर्यादिकं सर्व यस्याभस्ति युगे युगे । नीबूके रसमें सात वार भावना दे कर पुटपाक करे । सिद्ध्यादिके भगो जयस्तेन भगवती स्मृता॥" रत्ती भर गोलीका सेवन करनेसे भगंदर बहुत जल्द जाता (ब्रहावैवर्त पु० प्रकृति० ५४ अ०) रहता है। चिकित्सक सोच विचार कर अनुपानकी ६ दाक्षिणात्यमें प्रचलित भगवतीचित्राङ्कित पगोदा, व्यवस्था दे। (रसेन्द्रसारस• भगन्दर चिकि०) स्वर्णमुद्राविशेष । भगपुर ( स० क्ली० ) मूलतानके अन्तर्गत एक नगर। भगवतीपुर ---बद्ध मान जिलेके मनोहरशाही परगने के भगभक्त (स त्रि०) भगे धने भक्तः। धनरत, धनके पीछे अन्तर्गत एक गण्डग्राम। यह अक्षा० २३ ४२ उ० लगा हुआ। तथा देशा० ८८ ५ ३० पू०के मध्य विस्तृत है।। भगभक्षक ( स० पु०) भगं योनिस्तामुपाश्रित्य भक्षयति भगवत् (स० पु०) भगः षड़े श्वयं अस्त्यस्य नित्य योगे जीविका निर्वाहयतीति भक्ष ण्वुल । नायक और भतुप, मस्य व । १ ऐश्वर्यादियुक्त वा बड़े श्वर्य सम्पन्न नायिकाका मेलक, दोगलेका अन्न खानेवाला । इनका अन्न परमेश्वर । २ बुद्ध । परमेश्वर हो भगवच्छब्दवाच्य हैं। खानेसे चान्द्रायण करना होता है। विष्णुपुराणमें लिखा है, कि विशुद्ध और सर्वकारणके “यो वान्धव : परित्यक्तः साधुभिर्नाहागौरपि । कारण महाविभूतिशाली परब्रह्ममें हो भगवत् शब्द प्रयुक्त कुपडाशी यश्च तस्यान्नं भुकत्वा चान्द्राययाश्चरेत् ॥" होता है। भगवत् शब्दके भ-कारके दो अर्थ हैं, पहला धे (मार्कण्डेयपु० सदाचाराध्या०) ही सबोंके भरणकर्ता और सबोंके आधार हैं; दूसरा ग. भगयुग (सं० पु० ) वृहस्पतिके बारहयुगों से अंतिम कारका अर्थ गमयिता, समस्त कर्म और ज्ञान फलका युग। इसके पांच वर्ष दुंदुभि, उद्गारी रफ्ता, क्रोध प्रापक और स्रष्टा है। समस्त ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, और क्षय है। इनमें पहलेको छोड़ कर शेष चार वर्ष ज्ञान और वैराग्य इन छःका नाम भग है । परम- उत्तरोत्तर भयानक जाने जाते हैं। ब्रह्ममें ही यह भगवत् शब्द सार्थक होता है। दूसरी भगर (हिं० पु०) सड़ा हुआ अन्न । जगह इसका प्रयोग होनेसे निरर्थक होता है। भूतोंकी