पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६९१

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भगवानशाल इन्द्रजी मिल कर जिन सब शिलालिपि तथा ताम्रशासनादिकी में जो अट्ठाईस प्रबंध लिखे थे. उनमें बहुतसे मूल्यवान् प्रतिलिपि पढ़ते थे, उसको शङ्का दूर करनेके लिए भगवान- ऐतिहासिक सत्य आविष्कृत हुए हैं। इसके सिवा लाल मूलफलकका पाठ मिलाया करते थे। इसी डा० कैनिहमकी आर्किलाजिकल समें रिपोर्ट और 'बम्बई उहशसे पहले सारे बम्बई प्रान्तसे आरम्भ कर पण्डित गैजेटियर' नामक पुस्तकमें भी उन्होंने कई एक महामूल्य भगवानलाल गुजरात, काठियावाड, उज्जयिनी, विदिशा, प्रबंध प्रकाशित किये। इलाहाबाद, भितरी, सारनाथ और नेपाल तक पहुंचे * १८८३ ईमें इन्होंने लिडेन यूनिभरसीटोसे Do . वे केवल उक्त कई प्रदेशोंमें जा कर चुपचाप बैठे रहे ctor of Philosophy की उपाधि पाई । इसके कुछ सो नहीं, कार्यानुसार उन्होंने पूर्व और पश्चिम राज- दिन बाद हो वे Kominklijk Institut vor le Taal पूताना, जयशलमीर तक सारी मरुभूमि, मध्यभारत, Linlen Tolken_kule van Nederlandsch मालव, भूपाल, सिन्देराज्य, मध्यप्रदेश, आगरा, मथुरा, lulie और Royal Asiatic Society of Great Bri. वाराणसी प्रभृति स्थान, वङ्ग, बिहार और उड़ीसा तथा thin aul Ireland नामक दो सभाके अवैतनिक सभ्य उत्तरभारतके यूसुफजई जिलेके शाहबाजगढ़से पूर्व नेपाल चुने गए । डा० वार्गेश, डा० काम्येल, डा. सेनार्ट, डा. तक हिमालय प्रदेशमें परिभ्रमण कर नाना स्थानोंके | कोडिन, डा० वूलर और प्रोफेसर कार्ण भादि महामना शिलाफलक और मुद्रादिको प्रतिलिपिका पाठ तथा ग्रंथ यूरोपीय पण्डितोंके साथ सर्वदा पत्रव्यवहारसे प्रत्न- एवं मुद्रादिकी प्रतिलिपिका पाठ तथा प्रन्थ एवं मुद्राका तत्स्व संबधीय महामतका निर्धारण देते थे। बंबई नगरके संग्रह किया था। इसके अलावा अपने भ्रमणकालमें प्राप्त अपने बालकेश्वर प्रासादमें संस्कृतज्ञ यूरोपीय अतिथिके विभिन्न जाति, धर्मसम्प्रदाय और ध्वंसप्राय सुप्राचीन समागम पर ये बड़े ही आनन्दित होते और उन लोगोंके कीर्ति समूहका आमूल वृत्तान्त वे अपनी पुस्तकमें लिख सन्देहपूर्ण प्रत्नतत्त्वानुसंधानफलके प्रकृत उत्तरदानसे गये हैं। १८७५-७६ ई०में इन्होंने अङ्ग्रेजी और प्राकृत उन्हें उपकृत तथा तुष्ट करते थे। दुःखकी बात है कि भाषामें शिक्षा प्राप्त की। अंगरेजीभाषामें विशेष ऐसे उद्यमशोल भारतसतानने, भारत-इतिहासकी गम्भीरा अभिज्ञ नहीं होने पर भी वे वैज्ञानिक प्रन्थादि अनायास गवेषणामें नियुक्त रह कर जिस वृक्षको लगाया, उसका पढ़ लेते थे। सुमधुर फल और उन्हें अधिक दिन तक नहीं भोगना इस प्रकार प्रत्नतत्त्वानुसन्धानमें रह कर उन्होंने पड़ा। १८८८ ई०की १६ मईको ४६ वर्षकी उम्र में वे शिलालिपिके पढने में विशेष दक्षता लाभ की। नेपालका भवलीला शेष कर स्वगंधामको चल बसे । काम समाप्त कर वे लौट हो रहे थे, कि उसी समय | ____ आजीवन परिश्रम करके भी वे कभी सांसारिक सुख- १८७४ ई०की २६ वी मईको डा० भाऊदाजीको मृत्यु स्वच्छन्दलाभ न कर सके। उनकी आर्थिक दशा उतनी हो जाने और उनके वंशधरोंके अर्थसाहाय्य अस्वीकार करने अच्छी न थो। ऐतिहासिक गवेषणां में उनका मस्तिष्क पर उन्हें स्वतन्त्रभाव तथा पाण्डित्यसे ऐतिहासिक आलोड़ित होने पर भी उन्हें उदरपूर्ति के लिए व्यतिष्यस्त तत्वोंकी आलोचना करनेका अवसर मिला । १८७७ होना पड़ता था । बुलर साहब (G, Buhler) का कहना ई०से 'इण्डियन ऐएिटफ्वारी' और 'बम्बई प्रांच आव है, कि जिस समय भगवानलालसे उनका परिचय हुभा था रायल एशियाटिक सोसाइटीकी पत्रिकामें उनके लिखे उस समय वे किसी देशीय वणिक्के आफिसमें काम प्रवन्ध प्रकाशित होने लगे। इन्होंने उक्त दोनों पत्रिका करते अथवा उसके हिस्सेदार थे। जीवन भर उसी ___ * रुद्रदाम और स्कन्दगुप्तके शिलालिपि-प्रवन्धकी उपकूम- मृत्युके चार महीने पहले २७वीं जनवरीको इन्होंने बुलर पिकामें Jour, Bom, Br R,AS vol VII 113 और साहबको अपने दैन्य और शारीरिक असुस्थताके बारेमें एक पत्र vol VIII, IX, XI भागमें इस कथाका उल्लेख मिलता है। लिख भेजा जिसमें गूनागढ़के दीवानसे कुछ मदद मांगी थी। Vol, XV, 172