पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६९४

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६ भगेड़-मग्न सीखो थो। किरणावलीप्रकाश व्याख्या, द्रव्यप्रकाशिका, प्रसारण, आकुञ्चन, परिवर्तन, आक्षेपण, और इतस्ततः न्यायकुसुमाञ्जलिप्रकाश प्रकाशिका और न्यायलोलायती- विक्षेप तथा कार्याकालमें उन सब अङ्गोंकी शक्तिहीनताका प्रकाशव्याख्या नामक न्यायग्रन्थ इनके बनाये हुऐ बोध, अतिशय यातना और स्पर्श करनेसे असह्य वेदना मिलते हैं। का अनुभव होता है। भगेड (हिं० वि० ) १ भागा हुआ, जो कहींसे छिप कर साधिके उत्पिष्ट होनेसे दोनों ही पार्श्व सूज जाते हैं भागा हो। २ जो काम पड़ने पर भाग जाता हो, कायर ।। और साथ साथ घेदना भी होती है। विशेषतः रातको भगेलू (हिं० वि० ) भगेड़ देखो। वह वेदना और भी बढ़ जाती है । संधिके विश्लिष्ट भगेवित ( स० वि०) धनविषय रक्षणयुक्त । होनेसे थोड़ी सूजन और सतत वेदना तथा संधिकी भगेश (सं० पु०) भगस्य ईशः ६ तत् । ऐश्वर्यादि विकृति होती है। संधिके विवर्तित होनेसे अविकृत के ईश्वर। और दोनों पार्श्व में तीव्र वेदना मालूम होती है। तिकि- भगोड़ा (हिं० वि०) १ भागा हुआ। २ भागनेवाला, गत होनेसे भी इसी प्रकारको वेदनाका अनुभव होता कायर। है। संधिस्थलसे अस्थिके विक्षिप्त होनेसे शूलवत् वेदना भगोल (सं० पु०) भानां नरुत्राणां नक्षत्रसमूहेन विर और अधोभङ्ग होनेसे वेदना तथा संधिका विघटन चितः गोलाकारः पदार्थः। भपञ्जर, नक्षत्रचक्र । होता है। खगोल देखो। ___ काण्डभङ्ग साधारणतः १२ प्रकारका है-१ ककटक, भगौहां (हिं० वि०) भागनेको उद्यत । २ कायर । ३ गेरु- २ अश्वकर्ण, ३ चूर्णित, ४ पिश्चित, ५ अस्थिच्छलित, ६ से रंगा हुआ, भगवा। काण्डभङ्ग, ७ मजानुगत, ८ अतिपातित, ६ वक्र, १० भग्गू (हिं० वि० ) जो विपत्ति देख कर भागता हो, छिन्न; ११ पारित और १२ स्फुटित । इस रोगमें अकसर कायर। अतिशय स्वयथु, स्पन्दन, विवर्तन, स्पर्श करनेसे असह्य भग्न ( सं० वि० ) भन्ज-त, सङ्घान् , विश्लिष्टत्वात् वेदना, टीपनेसे शब्दानुभव तथा अङ्गसमूह श्रस्त और तथात्वं । १ पराजित, जो हारा या हराया गया हो। नाना प्रकारकी वेदना आदि लक्षण दिखाई देते हैं । ऐसी २ चूर्णित, टूटा हुआ। (क्ली०) भज्यते आमद्य ते अवस्थामें रोगी कभी भी सुखलाभ नहीं कर सकता। विश्लिष्यते इति भञ्ज-क्त । ३ रोगविशेष । हड्डोके १ अस्थिदण्डके दोनों ओर टूट कर मध्यस्थलमें स्थानच्युत होने अथवा टूटनेसे शरीरमें जो व्याधि उत्पन्न प्रथिकी तरह उन्नत हो जानेसे उसको कर्कटक, २ दोनों होती है, उसे भग्नरोग कहते हैं। सुश्रुतमें इसके निदा- भङ्गास्थि घोड़े के कानको तरह उन्नत हो जानेसे अश्व- नादि इस प्रकार लिखे गये हैं-उच्च स्थानसे पतन, कर्ण, ३ अस्थिके चूर-चूर हो जानेसे चूर्णित, अतिशय प्रहार, आक्षेपण, हिंस्रपशुके दर्शन आदि नाना कारणोंसे स्थूल और अधिक सूज जानेसे पिच्छित, दोनों पार्श्वको अस्थि और अस्थिसन्धि भग्न हो जाती है। एक छोटो हड्डियोंके उठ जानेसे अस्थितच्छस्त्रित, ६ सन्धिस्थलसे दूसरे सन्धिस्थलके मध्यवत्ती अस्थिखण्ड प्रस्तरण करनेमें कम्पित होनेसे काण्डभङ्ग, किसी को काण्ड कहते हैं। इस प्रकारको दो काण्डास्थि जिस | अस्थिखण्डके अस्थिके मध्य प्रवेश कर मज्जाको विद्ध संयोगस्थल पर आवद्ध है, उसीका नाम अस्थिसन्धि करनेसे उसे भजानुगत, ८ अस्थिके अच्छी तरह है। प्रधानतः भग्नरोग दो प्रकारका है-सधिभङ्ग छिन्न हो जानेसे अतिपातित, ६ अस्थिके कुछ वक्र हो ( Dislocation) और काण्डभङ्ग ( Fratcure)। कर भङ्ग वा विश्लिष्ट होनेसे वक्र, १० अस्थितके भङ्ग हो कारण भेदसे संधिभङ्ग ६ प्रकारका है,-उत्पिष्ट कर एक पायमें कुछ लगे रहनेसे छिन्न, ११ नाना विश्लिष्ट, विवर्तित, तिर्णकगत, क्षिप्त और अधोभग्न । प्रकारसे विदीर्ण हो कर वेदनाविशिष्ट होनेसे पाटित साधारणतः इन छः प्रकारके संधिभग्नोंसे ही अङ्गका | और १२ शूकपूर्णके सद्दश सूज आनेसे उसको स्कुरित