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भद्रकाली-भद्रगणित
भद्रकाली ( स० स्त्री० ) भद्रा मङ्गलमयी चासौ काली-! तुम्हें दे सकू। हां, तुम्हें यह वर देती हूं, कि मेरे द्वारा
चेति कर्मधा० यद्वा भद्र कल्याण कारयतीति भद्र- निहत होने पर भी कभी भी तुम्हें मेरे चरण नहीं छोड़ने
कर्मण्यन्, ततो ङीप्! १ गन्धोली, कपूरकचरी। पड़ेंगे। जहां मेरी पूजा होगी, वहां तुम भी पूजा
२ कात्यायनी। ( मेदिनी)
पाओगे।” तब बड़े आनन्दसे महिषासुरने कहा,
"शृणु त्वं नृपशार्दूल ! भद्रकाली यथा पुरा। “उप्रचण्डे ! भद्रकालि ! दुर्गे ! आप मेरी यह वासना पूरी
प्रादुर्भूता महाभागा महिषेणा सदैव तु ॥"
करें।” इस पर देवीने कहा--"तुमने मेरे जो तीन नाम
(कालिकापु०५६ अ०) उच्चारित किये हैं, उन तीन मूर्तियोंके साथ मेरे पादलग्न
कालिकापुराणके ५६वें अध्यायमें भद्रकाली देवीके हो कर तुम सर्वत्र पूजित होओगे। ( कालिकापुराण)
आविर्भावका विषय लिखा है जो इस प्रकार है,
भद्रकाली और दुर्गा एक ही हैं। दुर्गापूजाके
___ भद्रकालीदेवी भगवती दुर्गाको मूर्तिविशेष है। ये विधानानुसार इनकी पूजा हुआ करती है। तसारमें
देवी पोडशहस्तयुक्ता हैं । एक दिन महिपारमुग्ने निद्रिता. इनकी पूजाका विधान लिखा है।
वस्थामें स्वप्न देखा कि, देवी भद्रकाली उसका शिर- ३ मेदिनीपुरसे २॥ कोसकी दूरी पर नैऋतकोणमें
च्छेद कर रक्तपान कर रही है । म्वप्नसे डर कर प्रातःकाल अवस्थित एक पवित्र तीर्थ । यहां भद्रकालीकी मूर्ति
ही महिषासुरने अपने अनुचरवर्गके साथ देवीकी पूजा प्रतिष्ठित है। कुर्गराज्यमें भी भद्रकालीका मन्दिर है।
आरम्भ कर दो। पूजासे सन्तुष्ट हो कर देवी पोडशभुजा भद्रकालीके सन्मुख मुगौ आदि विविध बलिदान
भद्रकाली-रूपमें आविर्भूत हुई। तर दैत्यराज बोले, "देवि! होते हैं।
मैंने स्थान देखा है कि आप मेरा शिरच्छेद कर रक्तपान ४ स्कन्दानुचर मातृभेद । ५ दक्षयज्ञके समय देवी
कर रही हैं। सन्दह नहीं कि यह सत्य ही होगा, और भगवतीके क्रोधसे इनको उत्पत्ति हुई थी। इन्होंने
मुझे भी दुःख नहीं है ; कारण नियतिका लङ्गुन करना उत्पन्न होते हो वीरभद्रके साथ दक्षयश ध्वंस किया था।
असम्भव है। मैंने मन्वन्तरकाल तक श्रेष्ठ असुरराज्यका। (कूर्मपु. बिष्णुपु. और भारत शान्तिप० २८४ अ.)
भोग किया है। शिष्य के लिए कात्यायन मुनिने मुझे, गङ्गाके पश्चिमतीर पर अवस्थित एक ग्राम । ७
शाप दिया है कि 'स्लोजाति तुझे मारेगी।' अतः इममें ! गधप्रसारिणी। (पर्यायमुक्ता.) ८ नागरमुस्ता, नागर-
सन्दह नहीं कि मैं आपके द्वारा मारा जाऊंगा। पहले मोथा। (वैद्यकनि०)
कात्यायन मुनिके शिष्य रौद्राश्च नामक एक अतिशय | भद्रकालेश्वर (सं० पु० ) शिवलिङ्गभेद ।
साधुचरित्र ऋषि हिमालय पर्वतके निकट तपस्या कर भद्रकाशी ( सं० स्त्रि०) भद्राय काशते इति काश-अच,
रहे थे, मैंने कौतुकवश स्त्रीरूप धारण कर उनका तप गौरादित्वात् ङीष् । भद्रमुस्ता, नागरमोथा।
भङ्ग कर दिया था, उनके गुरुने उसे मेरी माया समझ भद्रकाष्ठ ( सं० क्लो०) १ देवदारुवृक्ष । २ तैल-देवदारु,
कर मुझे शाप दिया था। मेरा मृत्यु-समय आसन्न है; मलङ्गा-देवदारु ।
इसलिए मैं भाविमङ्गलके लिए आपसे एक वर मांगता भद्रकाहया ( स० स्त्री० ) भद्रमुस्ता, नागरमोथा।
हूँ। हे देयो ! आप प्रसन्न हजिए।" देवी भद्रकालीने वर भद्रकीर्ति-एक जैन पण्डित । ये आमराजके मित्र थे।
देना स्वीकार किया। महिषासुरने कहा--"मैं आपके भद्रकुम्भ ( स० पु०) भद्रस्य भद्राय वा कुम्भः अथवा
अनुग्रहसे यज्ञभाग भोगनेकी इच्छा करता है और जब भद्रः कुम्भः । पूर्णकुम्भ ।
तक चन्द सूर्य रहेंगे, तब तक आपकी पादसेवा नहीं भद्रकृत ( स० वि० ) १ मङ्गलविधायक, कल्याण करने-
छोड़गा।" उसके वापसे सन्तुष्ट हो कर देवीने कहा- वाला। (पु०) २ जैनोंके उत्सर्पिणीका चौवीसवां अर्हत्.
"पहले से ही समस्त यशोंका भाग देवों में विभक्त हो चुका भेद ।
है, अब रज्ञ का काई ऐसा भाग नहीं बना है, जिसे मैं भद्रगणित ( स० क्ली० ) वाजगणितोक्त चक्रविन्यास द्वारा
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/७२०
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