पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/७३८

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७३२ भरत एक दिन चौरराजने पुत्रकी कामनासे नरपशुबलि देने- राजा भरत समस्त राजाओंको परास्त कर सार्वभौम का संकल्प किया। बलि देनेके लिए जिस मनुष्यका राजन हुए। इन्होंने यमुना-तीर पर एक सौ, सरस्वती लाया गया था वह भाग गया, जिससे उनके अनुचर तोर पर तीन सौ और गङ्गातीर पर चार सौ अश्वमेध जड़रूपी भरतको पकड़ लाये । देवी भद्रकाली इस बातसे यज्ञका अनुष्ठान किया। पश्चात् पुनः सहस्त्र. अश्वमेध अत्यत कुपित हुई और उन्होंने चौर-वंशका ध्वंस कर और सौ राजसूयथा सम्पन्न कर अग्निष्टोम, अतिराख, डाला । एक दिन सिन्धु-सौवीरोंके राजा रहुगण इक्षवती उकथ्य, विश्वजित् और हजारों वाजपेय यज्ञ सम्पन्न किये के किनारे उपस्थित हुए। उनके शिविकाबाहकों से एक थे। उनके नामसे भारतवर्षका नामकरण हुआ था। बीमार पड़ गया, इससे उन्होंने भरतको हृष्टपुष्ट देख कर | यह भारतीकीर्ति भरतसे हो हुई है भरतका वंशधर- उन्हें ही उस कार्य में नियुक्त कर दिया। भरत शिविका | गण भारत नामसे प्रसिद्ध हुए थे। वे भगवान् विष्णुके बहनके समय, पैरोंके नीचे दब कर कहीं जीव न मर अंशमें आविर्भूत हुए थे। विदर्भराजकी तीन कन्याओं- आय इस ख्यालसे बहुत ही सावधानीसे चलने लगे आर के साथ उनका विवाह हुआ था इन्होंने वृहस्पतिके तनय बीच बीच में सामने आये हुए जीवोंको हाथसे हटाने लगे। भरद्वाजका पालन किया था। यह देख कर राजाने उनका उपहास किया। राजाके | (भारत ११७३ अ०, विष्णुपु०, भाग० ) उपहास पर कुछ ध्यान न दे कर उन्होंने उन्हें तत्त्वोपदेश भरत-मेवाड़के एक राजा। मेवाड़के राजा समरसिंहके दिया। राजाने उनके प्रति परमभक्तिमान हो कर उन्हें भ्राता सूर्यमलके पुत्र । समरसिंहकी मृत्यु होने प. उन- छोड़ दिया। इसके बाद वे देश-पर्याटनके लिए निकले के पुत्र कर्ण पितृ-सिंहासन पर अभिषिक्त हुए। कर्ण के थे और कुछ दिन बाद मुक्ति प्राप्त की थी। ( भाग०) सिंहासन पर बैठने पर भरत शत्रुके षड़यन्त्रमें पर कर जड़भरत देखो। चित्तोर छोड़ सिन्धुदेशको चले गये। वहां पहु बनेके ३ जैनमतानुसार आदि तोङ्किर ऋषभनाथ भगवान् कुछ दिन बाद ही उन्हें मुसलमान राजासे आरोर नगर के पुत्र। ये छः खण्डके अधिपति चक्रवत्ती थे । संसार-- प्राप्त हुआ। इन्होंने पुगलको भट्टिवंशीय किसी राजकुमारो- से परम-विरक्त रहते थे। भरतचक्रवर्ती देखी। के साथ पाणिग्रहण किया था। उसी स्त्रोके गर्भसे राहुप ४ शकुन्तलाके गर्भसे उत्पन्न दुष्मन्तके पुत्र । महा- नामक उनके एक पुत्र हुआ था, जो ननसालमें भारतमें लिखा है कि:-चन्द्रवंशीय महाराजा दुष्मन्तने | रहता था। कण्वाश्रममें शकुन्तलाके साथ गन्धर्व-विवाह किया था। ___इधर राजा कर्ण प्रियतम भ्राता भरके देशान्तर चले उस समय शकुन्तला गभवती हुई थीं। उस गर्भसे एक पुत्र जाने और पुत्र माहुपको अयोग्यताको विचारते हुए बड़े उत्पन्न हुआ। महर्षि कण्यने इस बालकका सर्वदमन ! कष्टसे कालयापन करने लगे और थोड़े हो समय बाद नाम रख कर शकुन्तलाके साथ उसे राजा दुष्मन्तके | उनका देहान्त हो गया। पास भेज दिया। शकुन्तलाने राजाके समक्ष सम्पूर्ण झालोरके शणिगुरु-वंशीय सरदारने कर्णकी कन्या- वृत्तान्त कह सुनाया, पर राजाको विस्मृतिवश कोई भी का पाणिग्रहण किया था। उस कन्याके गर्भसे रणधवल बात याद नहीं आई। उन्होंने पुत्रसहित शकुन्तलाको नामक एक पुत्र हुआ। झालोर-पतिने जघन्य विश्वास- वापस कर दिया। उस समय वहां यह दैववाणी हुई, घातकता करके चित्तोरके प्रधान गिहलोटोंको मार कर "राजन् ! शकुन्तलाने जो कुछ कहा है वह सत्य है, वहांके सिंहासन पर अपने पुत्र रणधवलको बिठा दिया। भार हमारे कहे अनुसार इस वालकका भरणपोषण कर्ण के पुत्र माहुप अपने सस्थाधिकारको रक्षामें सर्वाथा करें।" इस आकाशवाणोसे बालकका नाम भरत पड़ असमर्थ थे। पिताका राज्य अन्य व्यक्तियों द्वारा अधिकृत गया। महाराजा दुष्मन्तने फिर पत्नी और पुत्रको ग्रहण हुआ, परन्तु फिर भी उन्होंने उसके उद्धारार्थ कुछ भी कर प्रियतम भरतको यौवराज्यसे अभिषिक किया। कोशिश नहीं को । बप्पाका सिंहासन चौहान कुलके हस्त-