पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/७४७

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. भरल-भराड़ी भरल (हिं० स्त्री०) नीले रंगकी एक प्रकारको जंगली : कारीगरोंको ध्रुघ्नराजने मध्यभारतसे बुलाया था। उनकी भेड़। यह हिमालयमें भूटानसे लद्दाख तक होती है। वह अक्षरकीर्ति आज भी अक्षुण्ण रह कर पूर्वगौरवको भरवाई (हिं० स्त्री० ) वह डलिया या टोकरी जिसमें बोझ घोषणा करती है। बहुतोंका अनुमान है, कि इस सुत्र- • रखा जाता है। २ भरवानेकी क्रिया या भाव । ३ भर : हत् वौद्धकीर्तिका वहिःप्राचीर सम्राट अशोकके राज्यकाल- वानेको मजदूरो। .. में बनाया गया होगा। भरवाना ( हि० कि०) भरनेका काम दूसरेसे कराना, : इस प्राचीन मन्दिर में जो सब खोदित चित्र हैं, वे दूसरेको भरनेमें प्रवृत्त करना। बौद्धोंके जातक ग्रन्थसे गहीत हुए हैं। एतद्भिन्न कुछ भरसक (हिं० क्रि० वि०) यथाशक्ति, जहां तक हो चित्रोंके नीचे उसको विवरणशापकलिपि खोदित है। सके। बौचित्रको छोड़ कर यहां हिन्दू चित्रका भो अभाव भरसन (हिं० स्त्री० ) फटकार, डांट । नहीं है। अयाध्यापति रामचन्द्र, जनकराज, शीतलादेवी, भरसाई (हि पु० ) भाड देखा । यक्ष और यक्षिणो आदि मूर्ति तथा अन्यान्य नानाचित्र भरस् ( स० पु०) भृ-असुन् । मरण । परिशाभित हैं। इन चित्रोंकी वेशभूषासे उस समयके भरहपाल---काटाके एक अधिपति। ये टाकवंशीय थे। परिच्छदवारिपाट्य उपलब्ध हो सकता है। इस ध्वंसा- भरहरना (हि.क्रि.) भरभराना देखा । वशेषके कुछ अंशको ले कर पास हीमें एक और भी भरहराना (हि. क्रि०) महराना देवा ।

बढ़िया आधुनिक मन्दिर बनाया गया है। उसमें भी

भरहुत-मध्यप्रदेशके नागोदराज्यके अन्तर्गत एक प्राचीन अनेक हिन्दू देववियोंकी मूर्ति देखने में आती हैं। जनस्थान(१)। यह उचहरसे ३ कास उत्तर-पूर्व तथा भराँति ( हि त्रा० ) भ्रान्ति देखा। प्रयागसे ६० कोस दक्षिण-पूर्व में अवस्थित है। सुत्ना भराई ( हिं० स्त्री० ) १ एक प्रकारका कर जो पहले बना- रेल स्टेशनसे ४॥ कोस दक्षिण-पूर्व पड़ता है। रसमें लगता धा। इस करमेंसे आधा कर संग्रहकरने- बहुत पहलेसे यह प्राचीन नगर निमिड़ जंगलोंसे वाले राजकर्मचारीको मिलता और आधा सरकारमें जमा परिपूर्ण था। डा. कनिहम आदि प्रत्नतत्त्वविदोंके होता था। २ भग्नकी क्रिया या भाव । ३ भरनेकी अनुसन्धानके फलसे इसके भीतर छिपा हुआ ऐति मजदूरी।। हासिक रत्न आविष्कृत हुआ है। ईसा जन्मके ४ सदी । भराड़ी-दाक्षिणात्यवासी एक जाति। ये कुनबीजातिके पहले यह स्थान बौद्धकीतिका केन्द्र स्थल था। यहांकी वंशधर कहे जाते हैं। यत्र तत्र सड़कों पर डमरू बजा बौद्धकीर्ति जगत्का एक प्राचीन रत्न है । इस ध्वंसाव- कर ये अम्बाबाई या सप्तशृङ्गीदेवीकी महिमा गाते फिरते शिष्ट कीर्तिस्तूपका ध्यास प्रायः ६८ फुट और चारों | हैं। भिक्षा ही इनकी प्रधान उपजीविका है। इनमें दो ओरके प्राचोरका ध्यास ८८ फुट है। प्रस्तरगठित बाहर स्वतन्त्र थोक हैं, एक गद अर्थात् शुद्ध भराड़ी और दूसरा वाली दीवार टूट फूट गई है और उसका कुछ अंश आस | कदू अर्थात् सङ्कर भराड़ो। इन दोनों श्रेणियों में परस्पर पासके प्रामवासो उठा ले गये हैं। विवाहादि सम्बन्ध नहीं होता। ये साधारणतः काले इसके भीतरकी स्तम्भश्रेणो, द्वारदेश और चतुर्दि और बलिष्ठ होते हैं। गाय और सूअरके मांसको छोड़ कस्थ प्राचोरका शिल्पनैपुण्य देखने योग्य है। डाकर कर अन्य मांस, मत्स्य और मद्यमें इनको विशेष प्रीति कनिहम उसके द्वार परकी शिलालिपिको अक्षरमाला है। आकारानुरूप भोजन करनेमें समर्थ होने पर भी देख कर अनुमान करते हैं, कि सिन्धुपारस्थित वैदेशिक ये रन्धनकार्यमें विशेष निपुण होते हैं। मद्यके सिवा गांजा और तम्बाकू भी इन्हें प्रिय है। (१) भौगोलिक टलेमीने इस स्थानको Rurlaotis नामसे * हंसजातक, किन्नरजातक, मृगजातक, मघादेवीयजातक, यव- उल्लेख किया है। मानचित्रमें इसका वर्साद नाम लिखा है। मझकिय जातक विषहरणीय जातक, लतुवजोतक प्रभृति.। Vol. xv. 186