पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/७५

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फल-फलकयन्त्र ६४ अर्थात् सुख या दुःखभोग व्यतीत कार्य मात्रका और सुख दुःखादि वा स्वर्ग नरकादि जो कोई फलभोग करते कोई परिणाम फल ही नहीं है। सभी कार्योंके अन्तमें हैं, वह कर्मजन्य है। शुभकर्मको फल सुख और अशुभ सुस अथवा दुःख हुआ करता है। इसोसे महर्षि गौत- वा पाप कर्मका फल दुःख है। जीव बार बार कर्म- मादि ऋषियोंने सुख और दुःखको ही कार्यका फलस्वरूप फलका भोग करते हैं, किन्तु आत्मा निर्लिप्त है, उसके स्वीकार किया है, सुख अथवा दुःख साक्षात्कारके बाद ये सब फल नहीं होते। और कोई भी फल उत्पन्न नहीं होता, वही सुखदुःख जब तक आत्माका मायिकबन्धन छिन्न नहीं होता, भोगकार्य मात्रका चरभफल है। इस कारण सुख अथवा तब तक इस प्रकारका फल अवश्यम्भावी है। दुःखभोगको ही मुख्यफल कहना चाहिये । जीवके कलिमें दान ही एकमात्र शुभफलप्रद है । ब्रह्मवैवत्त- आहार विहार आदि व्यापारोंका मूल कारण प्रवृत्ति और पुराणमें प्रकृतिखण्डके ३४वें अध्यायमें तथा हेमाद्विमें दोष है। प्रवृत्ति शब्दसे यत्न और दोष शब्दसे राग, दानफलका विशेष विवरण लिखा है, विस्तार हो जाने द्वेष तथा मोह ये तीनों ही समझे जाते हैं। रागका अर्थ के भयसे यहां नहीं लिखा गया। इच्छा अर्थात् अनुराग और द्वेषका आत्मगुणविशेष है। फलक ( स पु० क्ली० ) फल-संज्ञायां कन् । १ चक्र, द्वेष होनेसे अनिष्टाचरणमें प्रवृत्ति उत्पन्न होती है । ढाल। २ अस्थिखण्ड। ३ नागकेशर। ४ काष्ठादि- मोहका अर्थ अयथार्थ-ज्ञान है अर्थात् दुःखकर कार्य में फलक, तख्ता, पट्टी। ५ नितम्ब, चूतड़। ६ जलपात्र सुखकर और कामिनी आदिमें मनोहरत्वादि बुद्धि है। रखनेका आधारविशेष : ७ रजकपट, धोबोका पाट । ये तीनों प्रथमतः जीवात्माको आच्छन्न करते हैं । ८ चादर। ६ पृष्ठ, वरक । १० हथेली। ११ फल । इसीसे उपार्जन प्रभृति व्यापार अति दुःखकर होने पर भी १२ चौकी, मेज । १३ खाटकी बुनन जिस पर लोग उसमें उस दोष-मोहित आत्माकी प्रवत्ति उत्पन्न होती बैठते हैं। है। उस प्रवृत्तिके होनेसे हो व्यापारधारा उत्पन्न हुआ फलक ( अ० पु०) १ आकाश । २ स्वर्ग। करती है। वही घ्यापारधारा आखिरमें सुख वा दुःख फलकक्ष ( स० पु० ) महाभारतके अनुसार एक यक्षका उत्पादन करती है। इसी कारण दोष और प्रवृत्ति इस | नाम । सुख अथवा दुःखभोगका मूल कारण होती है। महर्षि फलकण्टक ( स० पु० ) फले कण्टकं यस्य। १ कण्टकि- गौतमने प्रवृत्ति और दोष द्वारा उत्पन्न पदार्थको हो फलवृक्ष । २ पनस, कटहल । ३ पर्पटक, खेतपापड़ा । फल बतलाया है। अतएव सुख अथवा दुःखभोग ही ४ इन्दीवरा । मुख्य फल है, इसमें जरा भी सन्देह नहीं। भोजनादि फलकण्टको (स० स्त्रो०) इन्दीवरा । क्रिया भी शरीरादि इन्द्रियके सुख और दुःखभोग सम्पा- फलक शा (सं० स्त्री० ) वनवदर वृक्ष, जंगली बेर । दन करती है, इस कारण वह गौणफल है । अतएव फलकना ( हिं० कि० ) १ छलकमा, उमगना।२ फरना सुख और दुःख इन दोनों के अन्यतरका साक्षात्कारत्व | देखो। ही मुख्यफलका लक्षण है तथा सुखदुःख भिन्न वर्तमान फलकपाणि ( स० पु० ) फलकं पाणौ यस्य । चमों, जन्यत्व गौणफलका लक्षण और जन्यत्व ही सामान्य ! हाथमें ढाल ले कर लड़नेवाला योद्धा । फलका लक्षण है । ( न्यायदर्शन ) फलकपुर (सक्ली० ) भारतके पूर्ववत्ती पुरभेद । अनिष्ट, इष्ट और मिश्रके भेदसे कर्मके तीन फल होते (पाणिनि ६।२।१०१) हैं। चाहे जिस किसी कार्यका अनुष्ठान क्यों न किया फलकयन्त्र ( स० क्ली० ) ज्योतिषोक्त यन्त्रभेद । इसके जाय उसके उक्त तीन प्रकारके फलके सिवा और अनुसार ज्या आदिका निर्णय किया जाता है । सिद्धान्त- किसी प्रकारका फल नहीं होगा। शिरोमणिमें इस यन्त्रकी प्रस्तुत प्रणाली आदिका विशेष मानव इस जगत्में (गीता १८ अ०) या परलोकमें | विवरण लिखा है। Vol, xv. 18