पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/७५६

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७. भल्लय-मल्लातक. भल्लय (स. पु० ) ईशान दिशाका एक प्राचीन प्रदेश। हज्बुल-फहम, हबेल करन । संस्कृत पर्याय-अरुस्कर, भल्लवि ( स० पु० ) ऋषिभेद । भल्लात, शोथहत्, वहिनामा, वीरतरु, व्रणरुत्, भूत- भल्लाक-राजपुत्रभेद। ( वायुपु० ) नाशन, भल्लातकी, अग्निमुखी, वीरवृक्ष, निर्दहन, तपन, भल्लाक्ष ( स० वि०) भल्लस्येवाक्षि यस्य अन्समा- अनल, कृमिघ्न, शैलबीज, बातारि, स्फोटबीजक, पृथक- सान्तः। १ मन्यदष्टि, जिले कम दिखाई देता हो । (पु०) बोज, धनुवृक्ष, बीजपादप और वहि । इसके गुण-कटु, २ सभेद । । तिक्त, कषाय, उष्ण, कृमि, कफ, वात, उदर, आनाह और भल्लाट (स० क्लो०) १ शशिध्वजराजपुर । भगवान् : मेहनाशक । फलगुण-कषाय, मधुर, कोष्ण, कफ, श्रम, विष्णु कल्कि अवतार धारण कर पहले सेनाके साथ इसी , श्वास, आनाह, विबन्ध, शूल, जठर, आध्मान और कृमि- नगरमें गये थे। ( कल्किपु० २२ अ०) (पु.)२ दण्ड- नाशक । . सेनके पुन। ३ पर्वतभेद। इसका मजगुण विशेषरूपसे दाह और पित्तनाशक, भल्लात (सपु०) भल्लं भल्लास्त्रमिव अतति आत्मानं ' तर्पण, वात और अरुचिनाशक तथा दीप्तिजनक है । ज्ञापयतीति अत-अच् । भल्लातकवृक्ष, भिलावाँ । (राजनि.) भल्लातक ( स० पु०) भल्ल इव अततीति अत-कुन वा भावप्रकाशमें लिखा है, भल्लातक शब्द तीनों भल्लात-स्वार्थे कन् । स्वनामख्यात वृक्षविशेष, भिलावें- लिङ्गों में व्यवहृत होता है। अरुष्क, अरुस्कर, अग्निक, का पेड़। (Semecarpus Anticturdium वा The अग्निमुखी, भल्ली, वीरवृक्ष और शोफकृत, ये भल्लातक- . murking nut trce ) वस्त्रादिमें चिह्न देनेके लिए, विशे- के प्रसिद्ध नाम हैं। इसका पका फल मधुरकषायरस, . षतः रजकगण, इसका व्यवहार करते हैं। इसके रससे मधुरविपाक, लघु, पाचक, स्निग्ध, तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, सूती कपड़े कालेरंगसे रंगे जाते हैं। शतद् से आसाम : छेदो, भेदक, मेधाजनक, अग्निकारक तथा कफ, वायु, तक पर्वतके निम्नतट पर वा आसपास, भारतमहासागर- वण, उदर, कुष्ठ अशं, ग्रहणो, गुल्म, शोथ, आनाह, ज्वर के पूर्वद्वोपपुञ्ज तथा उत्तर अष्ट्रेलियामें यह वृक्ष काफो और कृमिनाशक है । इसकी मजा--मधुरस, शुक्रवर्द्धक, तौर पर होता है।

मांसवर्द्धक, वायु और कफनाशक है । भल्लातक-

. . स्थानविशेषमें यह वृक्ष विभिन्न नामसे परिचित है। कषाय, मधुरस, उष्णवीर्य, शुक्रवर्द्धक, लघु, वायु, श्लेष्मा, जैसे, हिन्दीमें-भेला, भिलावां, भिलरन, भ्योला, बैल उदरानाह, कुष्ठ, अर्श, ग्रहणो, गुल्म, ज्वर, श्वित्र, अग्नि- तक ; बङ्गलामें-भेला, भेलतकि ; सन्धाल-शोसो।। मान्ध, कृमि और वणनाशक होता है। कोल- -लोसों ; उडिष्या--भल्लिया ; गारो बबरी; इस वृक्षसे एक प्रकारका काले रंगका गोंद सा आसाम-भोलगुटी; नेपाल-भलैयो, भलै; लेपचा -कोडी; निकलता है। उससे बार्निशका काम होता है । इसका 'मलया-चेरुणकुरु, कम्पिरा ; गोंड़-कोका, बिवा; युक्त बीजकोष तिक्त और धारकगुणविशिष्ट है। उसमें जो प्रदेश-भिलावां, भाल, भलियान ; पञ्जाब--भिलाव, काले रंगका गोंद-सा रहता है, उसे कपड़े पर लगा कर भेला. भिलादर ; मध्यप्रदेश-भिलावा, कोक, ऊपरसे चुनेका पानी डाल देनेसे फिर वह कभी भी नहीं भल्लिया , बम्बई--बिब, भीव, भीलम, विलम्बी : छूटता। इसके काले रसमें फिटकरी मिला कर उससे मराठी-बिब्य, बिबू, विभ ; गुजराती -भिलामू ; दाक्षि- कपड़े रगे जाते हैं । बालेश्वर जिले में ऊपरको हँडियामें णात्य-भिलवन, बेलतक ; तामिल-शनकोट्टई, सेरम- भिलावा रख कर नोचेकी हैडिया आग पर रखो जाती कोट, सैड सेयरङ्ग, तेलगू-जिडि-बिट्टलु, जिड़ि, है। क्रमशः गरम होने पर ऊपरकी इंडियाके छेदोंसे रस मैलजेडि, नल्ल-जिड़ि, चेटू, जीडिचे, तुम्मद, मामिडि; टपक कर नीचेको हडियामें इकट्ठा होता रहता है। तव कनदी--गेड़, घेरु, घेड़ा ब्रह्म-ज्वैवेन, स्विसिसिंहल- उस रसमें तेल और चूनेका पानी मिला कर कपड़े रंगे किरि-वदुल्ल; फारसो-भिलादुर, अरव--भिलदिन, जाते हैं। हजारोबागमें पहले कपड़ोंको अच्छी तरह