पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/७६

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फलकर-फलघृत फलकर ( हिं० पु० ) वह कर जो वृक्षोंके फल पर लगाया फलकिन् (सं० पु०) फलकं फलकांकारोऽस्त्यस्येति फलक- जाता है। इनि । १ मत्स्यभेद, चीतल नामकी मछली। (त्रि०) २ फलकसकथ (सं० वि० ) फलकमिव सक्थि यस्य पच फलकान्वित । फला झञ्जिरिष्टवृक्ष एव स्वार्थे क, फलका समासान्तः । फलकतुल्य सक्थियुक्त । (क्लो०) ततः चतुरर्थ्या प्रेक्षादित्वात् इनि। ३ तवृक्ष समी- फलकमिव सक्थि। पादि। फलका ( अ० पु०) १ नाव या जहाजको पाटनमें वह फलकी (सं० स्त्री० ) फलकिन देखो। दरवाजा जिसमेंसे हो कर नीत्रेसे लोग ऊपर जाते और फलकीवन ( स० क्ली०) महाभारतके अनुसार एक बनका ऊपरसे नीचे उतरते हैं। २ फफोला, छाला। नाम जो किसी समय तीर्थ माना जाता था। फलकाम (सं० वि० ) फलं कामयते इति कम-अण । कर्म- फलकृच्छ (सपु० । एक प्रकारका कृच्छ व्रत । इसमें फलकामी, जो कर्मके फलकी कामना करता हो। शास्त्रमें बेल आदि फलों के क्वाथको पी कर एक मास तक रहना फलकामी हो कर कार्य करनेको विशेष निन्दित बत- पड़ता है। लाया है। फलकृष्ण ( स० पु० ) फले फलावच्छेदे कृष्णः। १ शास्त्रमें सभी जगह निष्काम कर्मका विधान देखनेमें पानीयामलक, जल-आँवला । २ करञ्जवृक्ष । (त्रि०) फलं आता है, इस कारण सबोंको फलकामनाशून्य हो कर कृष्ण यस्य । ३ कृष्णफलयुक्त। कर्मानुष्ठान करना विधेय है । अज्ञानान्ध जीवोंका चित्त फलकेशर (सपु०) फले केशरा इवाऽस्य । नारिकेलवृक्ष, बहुत मलिन है, इस कारण वे हमेशा नाना प्रकारको नारिकेलका पेड़। कामना द्वारा अभिभूत रहते हैं। जब तक उनका चित्त फलकोष ( स० पु० ) फलस्य मुष्कस्य कोष इव। १ मलिन रहेगा, तब तक वे पुनः पुनः सकाम कर्मका अनु- मुष्कावरक चर्म युक्त अण्डकोष। २ पुरुषको इन्द्रिय छान करेंगे। किन्तु इस प्रकार कर्म करते करते जिस : लिङ्ग। परिमाणमें चित्त-मलिनता दूर होगी उसी परिमाणमें चित्त फलकोषक ( स० पु० ) फलं मुष्क एव कोषो यत्र, ततः भी कामान्य होगा। भगवान् विष्णुको प्रोतिको कामना कन् । मुष्क, अण्डकोष । करके यदि किसी कर्म का अनुष्ठान किया जाय, वह दोष फलमहि (सं० त्रि०) फलं गृह्णातीति ग्रह-इन् । उपयुक्त नहीं होता। । समयमें फलित वृक्ष। "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।” (गीता) फलग्राही ( स० पु० ) फलं गृह्णातीति ग्रह-णिनि । १ वृक्ष, भगवान् विष्णुने अजुनको निष्काम कर्म करनेका उप- पेड़। (त्रि०)२ फलग्रहणकर्ता, फल लेनेवाला। देश दिया था। जीवदेह धारण करनेसे, इच्छापूर्वक हो चाहे फलघृत (स क्लो० ) घृतौषधविशेष। इसको प्रस्तुत भनिच्छापूर्वक, कर्म करना ही होगा। निष्कर्म हो कर कोई प्रणाली-गव्यघृत ४ सेर, शतमूलीका रस ८ सेर, दुग्ध भी नहीं रह सकता । जब कर्म जीवका अवश्यम्भावी है, ८ सेर । कल्कार्थ-मञ्जिष्ठा, यष्ठिमधु, कुड़, त्रिफला,चीनी, तब जिससे जीवगण फलकामनाशून्य हो कर कर्म का विजवन्दकी जड़, मेदा, क्षीरकोल, अश्वगन्धामूल, वन- अनुष्ठान करे, उसीके लिये शास्त्रमें बार वार फलकामना- यमानी, हरिद्रा, दारुहरिद्रा, हिंगु, कटकी, रक्तोत्पल, कुमुद, त्यागका विषय वर्णित हुआ है। सकाम फम का फल : दाक्षा, ककोल, क्षीरकोल, श्वेतचन्दन, रक्तचन्दन, लक्षणा- बन्धन और निष्काम कर्म का फल मुक्ति है । यही सकाम , मूल (अभावमें श्वेतकण्टिकारीका मूल) प्रत्येक दो तोला । और निष्काममें प्रभेद है। इन सब दृष्यों से नियमपूर्वक घृत प्रस्तुत करना होता फलकावन (सं० क्ली) एक कल्पित बनका नाम जिसके है। पुरुष यदि इस घृतका सेवन करे, तो उनकी रति- सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है, कि यह सरस्वतीको बहुत शक्ति बढ़ती है और स्त्रियों के सब प्रकारके योनिदोष प्रिय है। तथा गर्भदोष दूर हो कर आयु और बलशाली पुत्र उत्पन्न