पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१८ अगरवाल अगरवालोंमें १७॥ गोत्र प्रचलित हैं। हमने जितने करना पड़ती हैं। अब अगरवाल दो श्रेणियों में गोत्रोंकी तालिका देखी है, उनमें परस्पर नामोंका बंट गये हैं-पूर्वीय और पश्चिमीय । इनके परस्परमें मेल नहीं। फिर भी, १७॥से अधिक गोत्र नहीं देख आदान-प्रदान प्रचलित नहीं। फिर भी, यह एकत्र पड़ते । मि० शरिङ्ग (Mr. Sherring), सर् रिज़ली आहार-विहार कर सकते हैं। किन्तु क्रमसे यह (Sir Risley) # 1 Hea (Mr. Crooke) दोनो श्रेणी आत्मीयताके सूत्रमें आबद्ध हो परस्पर जो गोत्र-तालिका लिपिबद्ध को है, उसमें तो विशेष मिल रही हैं और अचिरकाल के बीच, यह अच्छो असामञ्जस्य वर्तमान है। सत्रह प्रधान और एक तरह समझा जा सकता है कि, इनमें फिर आदान- अप्रधान या अगोत्र होनेवाले कारणके सम्बन्ध में यह प्रदान प्रचलित होजायगा । बहुविवाह इनके समाजमें बात कहते हैं, कि राजा अगरनाथने देवी लक्ष्मौके निषिद्ध है। फिर भी, प्रथम पत्नी वध्या होनेसे प्रीत्यर्थ अट्ठारह यन्न किये थे। देवी लक्ष्मीने प्रसन्न हो द्वितीय दारपरिग्रह करनेको विधि रखी गई है। उन्हें वर दिया, कि उनको महिषी नागराज कुमुद नतुवा अन्य किसी कारणसे द्वितीय दारपरिग्रह कन्याको सन्तान अगरवाल नामसे परिचित होती,और करने पर यह समाजच्युत हो जाते हैं। जब तक वह दिवालौका उत्सव अच्छी तरह मनाये जाते अगरवालोंमें अधिकांश लोग वैष्णव हैं और जैन- तब तक उन्हें कोई अर्थ कष्ट न होता और वह लक्ष्मोके दिगम्बर सम्प्रदाय-भुक्त व्यक्तियों भी संख्या. अधिक वरपुत्र होकर चिरदिन सुख-स्वच्छन्दसे समय व्यतीत देख पड़ती है। शैव और शाक्त अगरवाल अल्प परि- करते। सत्रह यज्ञ निर्विघ्न सुसम्पन्न हुए थे, किन्तु माणमें मिलते हैं। किन्तु किसी धर्म के अवलम्बो १८वां यज्ञ जब आधा समाप्त हुआ, तब यज्ञमें पशुवध यह क्यों न हों, इनमें आदान-प्रदान प्रचलित रहता जनित विघ्न उपस्थित हो गया। राजाने दुःखितान्तः- है। विवाहकालमें हिन्दू शास्त्रानुमोदित आचार- करणसे यज्ञ बन्द कर दिया, और भविष्यत्में उनके व्यवहार और विधि-निषेध अनुष्ठित होता है। वंशभरमें जिससे सदाके लिये पशुवध बन्द हो जाये, स्त्रीपुरुष विभिन्न धर्मावलम्बी होनेपर प्रथमतः कन्या उसका आदेश लोगोंको प्रदान किया। यह आधा पात्रके धर्मसे दीक्षित को जाती, और विवाहके गोत्र उसी असम्पर्ण यज्ञको सूचित करता है। बाद कन्याको पिटरह जानेसे स्वपाक अब भोजन अगरवालोंको जन्मदात्री नागमहिषीको स्मृतिका करना पड़ता है। यह आज तक पवित्रज्ञान पोषण करते हैं। विहारके उत्तर भारतवाले साधारण निष्ठावान् हिन्दुओंके अगरवाल कहते हैं-'हमारी जातिका ननिहाल साथ इनके आचार-व्यवहारका विशेष कोई पार्थक्य नागवंशीय है।' हिन्दू या जैन अगरवाल कभी परिलक्षित नहीं होता। लक्ष्मीदेवी इनकी प्रधान आ- सर्पवध नहीं करते। दिल्ली और कितनी ही दूसरी राध्य देवता हैं। इनको यह दृढ़ विश्वास है, कि जगहोंमें अगरवाल बाहरके दरवाजेको दोनो लक्ष्मीको कपासे यह धनी और सौभाग्यशाली होते ओर सर्पका चित्र अङ्कित करते, और फलफूलसे आये हैं। गौड़ ब्राह्मण इनका पौरोहित्त्य करते उसे पूजते हैं। किन्तु जैन-अगरवाल किसी हैं। यह कहते-हम आर्य वैश्योंके वंशधर हैं। प्रकार सर्पपूजा नहीं करते । हिन्दू अगरवालोंमें वैश्यराज धनपाल इनके पूर्वपुरुष थे। कहते हैं, कि आस्तीक मुनिकी पूजा अधिक प्रचलित है, और वह सम्राट अकबरके मन्त्री मधुशाह जातिके अगरवाल नाग-उपासक बता अपना परिचय प्रदान करते हैं। रहे। अकबर बादशाहके समयवाले सिक्कोंमें आज भी स्वगोत्र-विवाह अगरवालोंमें प्रचलित नहीं। इनका नाम अङ्कित मिलता है। अगरवालोंमें अधि- इसके सिवा विवाहमें पात्र-पात्रीके निर्वाचन कांश हौ व्यवसाय-वाणिज्य प्रभृति कार्य द्वारा जीवि- सम्बन्ध में इन्हें और भी नानाविध विधियां प्रतिपालन काको निर्वाह करते हैं। इनमें जो गरीब होते, वह