पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१०७

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अगस्त्य मानेन सम्मितो यस्मात्तस्मान्मान्य दहीच्यते। महर्षि मित्रावरुणके पुत्र हैं। मित्र और वरुण यहा कुम्भादृषिर्जातः कुम्भेनापि हि मौयते। देवता हैं। किन्तु आश्चर्यका यही विषय है, कि कुम्भ इत्यभिधानञ्च परिमाणस्य लक्षाते।" वंशरक्षा न होनेसे देवताओंको भी सद्गति नहीं अर्थात्-आदित्ययज्ञमें ऊर्बशोको देखनेसे वास मिलती । भगवान् अगस्त्यने ऐसी इच्छा को थी, कि वह तीवर नामक यज्ञीय कुम्भमें मित्र और वरुण देवताका दारपरिग्रह न करते । किन्तु उन्होंने देखा, कि एक रेत:स्वलन हो गया था। मुहर्त भरमें उससे अगस्त्य गर्तके मध्यमें उनके पिटपुरुष अधोमुखसे लटक रहे थे। और वशिष्ठ नामके दो वौर्यवन्त तपस्वी उत्पन्न हुए। महर्षिने व्यस्त हो इसका कारण पूछा। उन्होंने कहा, वही रेतः कलसमें, जलमें और स्थलमें कई जगह गिर 'वत्स ! हम तुम्हारे पिटलोक हैं ; तुम्हारे वंशरक्षा गया था । स्थलमें ऋषिसत्तम वशिष्ठने जन्म लिया, कुम्भ करनेसे हमारी सद्गति होगी। (महाभारत वन-प०८६ अ०)। में अगस्त्य और जलमें युतिमान् मत्स्यने। महातपा तब तो विवाह करना आवश्यक हुआ। किन्तु अगस्त्यका आकार हलको माची जैसा हो गया था। विवाह करनेके लिये मनके अनुसार कन्यारत्न चाहिये। इस आकारको परिमितिके कारण वह मान नामसे संसारमें सुन्दर अनेक सामग्री हैं, किन्तु उनमें दोष भी प्रसिद्ध हुए। अथवा कुम्भ एक परिमाण का नाम है। कितने हो पाये जाते हैं। इसी कारण महर्षि सुस्थिर- (द्रोणाभ्यं शूर्पकुम्भी च चतुःषष्टिशरावकः । ) अगस्त्य कुम्भमें उत्पन्न चित्तसे चक्षु मूदकर जगत्का सब सौन्दर्य परखने हुए थे, इसौलिये कुम्भसे उनका परिमाण होता है, बैठे। मन ही मन उन्होंने विचारा, कि चम्पाको फूल इसीसे वह मान नामसे प्रथित हैं। तोड़ वह कन्याके शरीरका रङ्ग बनाते, जलका कमल विष्णुपुराण और भागवतमें मित्रावरुणसे वशिष्ठके उखाड़ मुखको रचना करते और आकाशसे पूर्णिमाका पुनर्जन्मको कथा उल्लिखित हुई है, किन्तु उस जगह चन्द्र लाकर हंसौके साथ मिला देते। परखते-परखते अगस्त्यमुनिके जन्मग्रहणका नामप्रसङ्ग भी नहीं पाया ऋषिके हृदयमें आपसे हो रूपसागर उमड पड़ा। जाता। इक्ष्वाकुतनय निमि सहस्रवर्षव्यापी एक यज्ञ उसी समय विदर्भराज पुत्रकामनासे तपस्या करते करने लगे। उसो यज्ञमें होता होनेके लिये उन्होंने थे। स्त्रीरत्नको निम्माण कर चुकनेपर, अगस्त्यने वशिष्ठको वरण किया। किन्तु वह निमिराजके वहीं कन्या महाराजको अर्पण कर दी। यही यन्नमें न जा सके, क्योंकि उन्हें इन्द्रने पहिले हो एक महर्षिकी स्त्री, पोछे लोपामुद्रा नामसे प्रसिद्ध पञ्चशत-वर्षव्यापी यज्ञमें नियुक्त कर लिया था। सुतरां हुई। लोपामुद्राके गर्भसे दृढ़स्यु नामको एक निमिने गौतमको ले जाकर यज्ञारम्भ किया। इन्द्रका सन्तान उत्पन्न हुई थी। उन्हीं तेजस्वी पुत्रका यज्ञ सम्पन्न होनेसे, वशिष्ठने जाकर देखा, कि गौतम वाल्यावस्थामें इन्धनको आहरण करनेके कारण उनके शिष्यके यज्ञमें व्रती हुए थे। इस अपमानसे क्रुद्ध इधवाह नाम रखा गया। हो महर्षिने राजाको अभिसम्पात किया—'तुम देह "यानां भारमाजरे इमवाहस्ततोऽभवत् ।” महामारतम् वन प० हीन हो' । निमिने भो क्रुद्ध हो शाप दिया-'गुरुको ९ अ० २३-२७ लो। भी देहका पतन हो'। इसी शापके कारण वशिष्ठका इस स्थानमें महागोल है। उसकी शैली करनेका तेज मित्रावरुणाके तेजमें प्रविष्ट हुआ। इसके बाद कोई उपाय देख नहीं पड़ता। रामायणके अरण्य- ऊर्वशीदर्शन द्वारा मित्रावरुणका रेतःपात होनेसे वशिष्ठ काण्डमें सुतीक्ष्णमुनि रामचन्द्रको अगस्याश्रमका पथ दूसरी देहको प्राप्त हुए। (विष्णुपुराण ४:५।)। दिखाते थे- अगस्त्यमुनिका प्रथम नाम मान है ; पोछे विन्ध्य- “दक्षिणेन महान् श्रीमानगस्त्यधातुराश्रमः ।” रामायणम् अरण्यकाण ११।३७ । गिरिक दर्पको चूर्णकर उन्होंने अगस्ति नाम पाया । यानी तुम इस दिक्से जाना, ठीक इसी दिक्से । अब मालूम होता है, कि ऊपरके प्रमाणानुसार यही दक्षिण ओरको चार योजन और पथ है। चार योजन