पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/११०

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1 अगरु देखो। १०४ अगुआना-अगूढगन्ध अगुआना (हिं० क्रि०) १ आगे ले चलना।२ मुखिया बड़े-बड़े वृक्ष लगा देते थे। अति प्राचीन कालमें बनाना। ३ नेता ठहराना । भी यह प्रथा भारतवर्ष के बीच प्रचलित थी। वृक्ष- प्रतिष्ठा इस देश धर्म-कर्ममें गण्य है। दिलीप और अगुण (सं० पु०) गुणस्य विरोधी, नञ्तत्। दोष । ऐब । बुराई । (त्रि.) नास्ति गुणः यस्य । गुणरहित । सुदक्षिणा दोनो एक बार वशिष्ठाश्रमको जाते थे। निर्गुण । नादान। नावाकिफ। चलते-चलते पथको दोनो ओर जो वृक्ष देखत, उप- अगुणज्ञ (सं० वि०) गुण न जाननेवाला। जिसे चौज स्थित प्रजासे उन सब वृक्षोंका नाम पूछ लेते थे- को परख न हो। जो कदर करना न जानता हो। "नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम् ."-- रघु० । अगुणो (हिं० वि०) गंवार । जिसमें कोई गुण न हो। शौशम भूरे रङ्गका और दीर्घकालस्थायी होता अगुन (सं० अगुण) अगुण देखो। है। नेपाली सालको लकड़ी, इसमें सन्दह नहीं कि, अगुरु (सं० क्लो०) नास्ति गुरुः प्रधानो यस्मात्, गन्ध इस देशको सभी लकड़ीसे कठिन और स्थायी है। गौरवात्। गुणातौति गृ-उ गुरुः। वयोरुञ्च । उए १॥२४॥ शीशम इतना कठिन और स्थायी नहीं, किन्तु अन्यान्य १ अगरुचन्दन । कालागुरु।२ शीशम गुणोंमें सालको अपेक्षा श्रेष्ठ है। इसको लकड़ी- (त्रि०) गुरुशून्य। गौरवशून्य। गुरुवर्ण व्यतीत अन्य से नाव, गाड़ी, खेतीके औज़ार, कुर्सी, टेबिल, अल- वर्ण, अर्थात् लघुवर्ण । जो वर्ण अनुस्वार, विसर्ग या मारो, चारपाई, सन्दूक, बाक्स प्रभृति अनेक प्रकारके दीर्घ खरसे युक्त, अथवा संयुक्त वर्णसे पूर्व न हो द्रव्य और ग्राहसज्जाका असबाब तय्यार होता है। "प्रथममगुरु षटकं विद्यते यत्र कान्त काबुल-युद्धके समय वहां नाना प्रकार अच्छी-अच्छो तदनु च दशमञ्च दक्षरं हादशान्ता । देशौ और विलायती लकड़ीको गाड़ियां गई थीं । धरणिधरतुर यंत्र कान्त विरामः अफ़गानस्तानको चढ़ा-उतार ज़मौनमें सब प्रकारको मुकविजनमनोज्ञा मालिनी सा प्रसिद्धा॥" गाड़ियां चूर-चूर हुई, किन्तु शोशमको लकड़ीवालो अगुरुकाष्ठके यह कई एक पर्याय हैं-१ वशिक, गाडीका एक पहिया तक इससे २ राजाह, ३ लोह, ४ कृमिज, ५ जोङ्गक, ६ शृङ्गज, दिन-दिन इस वृक्षका इतना आदर बढ़ रहा ७ कृष्ण, ८ लोहाख्य, ८ लघु, १० पौतक, ११ इस देशको पतित भूमिमें शौशमको रोपण वर्णप्रसादन, १२ अनायक, १३ असार, १४ कृमिदग्ध, कर देनेसे भूस्वामी और प्रजाको आयवृद्धि होना १५ काष्ठक। सम्भव है। यह सरस और नीरस उभयविध अगुरुशिंशपा (सं० स्त्री०) शिंशपावृक्ष, शिशुवक्ष, मृत्तिकामें समान तेज दिखाता है। अगुरुशिंशपा शीशम (Dalbergin Sisoo and Latifolia)। शौशम वृक्ष दो प्रकारका होता है। एक जातिका नाम हिमालयको उपत्यकामें आप हो आप उत्पन्न होता शीशम (Dalbergia Sisoo) और दूसरो जातिका है। आजकल शोशमको लकड़ीका आदर बढ़ा नाम सफ़ेद शौशम (Dalibergia Latifolia) है। है: बङ्गाल, युक्तप्रदेश और पञ्जाबमें जगह-जगह पहिलौके पत्ते लम्बे और ढालू और दूसरोके कुछ प्रशस्त राजपथको दोनो ओर शौशम खूब जमता गोल और छोटे होते हैं। इङ्गलेण्डमें शोशमकी चला जाता है। इसके वृक्ष बढ़नेपर कोई १२० लकड़ीका विलक्षण आदर है। दाक्षिणात्यका उत्कृष्ठ हाथ ऊंचे चढ़ जाते हैं। राहको दोनो ओर इन्हें शीशम वहां छः रुपये मनके हिसाबसे बिकता है। लगा देनेसे ग्रीष्मकालमें पथिक रौद्रके तापसे कष्ठ अगुवा (हिं० पु०) नेता। मुखिया। आगे रहनेवाला। नहीं पाते। राजवर्ममें वृक्ष लगाना आज नई बात अगूढ़ (सं० वि०) न-गूढ़ गुप्त, नञ्-तत्। १ अगुप्त । नहीं होती, मुसलमान-सम्राट भी पथिक वाले २ खुला। ३ साफ। ४ प्रकट । ५ सरल, आसान। यातायातको सुविधाके लिये पथकी. दोनो ओर अगूढगन्ध (सं० क्लो०) गुह-त गूढ । न गूढो गन्धो यस्य । न टूटा।