पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/११३

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अग्नि-अग्निकुमाररस 3 अपने प्राण लेकर भाग खड़े हुए। विद्युत् और । अग्निक (सं० पु०) अग्नि-के-क । अग्निवत् कायति सूर्य को तरह कौनसी तेजःपुञ्ज वस्तु चमचमाती प्रकाशते । इन्द्रगोप नामका रक्तवर्ण कोट । बीरबहटी। और ऊपरसे धुआं उठ रहा था ? एक बार किसौने अग्निकण (सं० पु०) अग्नेः कणः, ६-तत्। अग्निका उनके झोपड़े में आग लगा दी। झोपड़ा धायं धायं स्फु लिङ्ग । आगको चिनगारी। जलने लगा। होपवासियोंने स्थिर किया, कि नये अग्निकर्म, अग्निकर्मन् (सं० क्लो०) अग्नो कर्म, ७-तत् । प्रकारका कोई भयङ्कर वन्य पशु जा उनके घर हार १ होम । २ चितामें आग लगानेका काम। खाये डालता था। अग्निकला (सं० स्त्रो०) अग्नेः कलाः। अग्निके दश मनुष्यको जब अांखें न खुलो थों, ज्ञानका उन्मेष प्रकार अवयव । यथा- न हुआ था, तब चन्द्र, सूर्य, विद्युत् और अग्निको “धूमार्चिकमा जलिनी चालिनी विस्फ लिङ्गिनो । ईश्वर समझना ही उसके लिये सम्भव था। उस समय सुयोः सुरूपा कपिला हत्य कन्यवरे ऽपि च । मनुष्यमें श्रद्धा न थी, भक्ति न थी, उसे केवल भय और यादीनां दशवर्णानां कलाधर्माप्रदा अमू।" क्षुधा ही मालूम होतो थो। वनको सन्थाल, कोल अग्निकारिका (सं० स्त्रो०) अग्निं करोति । अग्नि-क- प्रभृति असभ्य जातियां प्राण के भयसे भूत, बाघ और खुल टाप् । १ अग्निचयनके लिये ऋक् । २ अग्निकार्य, नद-नदीको पूजा करती हैं। वह यह नहीं जानती, कि होम और आधानादि। ३ क्षुधावृद्धिकर औषध, भूख कि परकाल क्या है, और ईश्वरभक्ति किसे कहते हैं। बढ़ानेवाली दवा। ऋग्वेदमें पत्रके बाद पत्र उलट जाइये ; मण्डलके अग्निकार्य (सं० लो०) अग्नेरग्नो वा कार्यम् । १ हवि- बाद मण्डल, सूक्त के बाद सूक्त पढ़कर आप देखेंगे, र्दान । २ अग्निज्वालन, आग जलाना। कि ऋषि केवल शत्रुभय और अन्नाभावसे व्याकुल अग्निकाष्ठ (सं० लो०) अग्नेः उद्दीपनं काष्ठम् । शाक- थे। वह केवल शत्रु के हाथसे परित्राण पाने और तत्। अगुरु काष्ठ, अगरको लकड़ो। अनलाभके लिये इन्द्र, वरुण और अग्निकी पूजा करते अग्निकोट (सं• पु०) आगमें रहनेवाला कोड़ा। थे। इसके बाद ईश्वर बुद्धि आई, परकालके प्रति अग्निकुक्कुट (सं० पु०) अग्नेः कुक्कुट इव, रक्तवर्णत्वात्। मनुष्यको भय उत्पन्न हुआ। अग्निसे अनेक उपकार १ ज्वलत् तृणगुच्छ, लाल गुलदस्ता । २ लाल पक्षी, होनेके कारण, सब लोग भक्तिपूर्वक उसको पूजा सुर्ख चिड़िया। करने लगे। हिन्दू, ईरानी, काल्डिय, मिश्री, अग्निकुण्ड (सं० क्लो०) अग्नौ अग्नेर्वा होमार्थं कुण्डम् । यहूदी, यूनानी. रोमक, चौना प्रभृति सभी अग्न्याधानका स्थान, होम करनेका कुण्ड। कुडि-ड जातियोंके शास्त्रमें देखा जाता है, कि उनके देव कुण्डः । कादिभ्यः कित् । उण १ ११२ । -मन्दिरों में दिन-रात अग्नि प्रज्वलित रहती थी। देवा- अग्निकुमार (सं० पु० अग्नः कुमारः, ६-तत् । कार्ति लयोंमें अग्नि प्रज्वलित रखनेकी प्रथा बाइबिलमें केय। कभ: किदुच्चोपधायाः । उण ३।१३८ । कार्तिकेय देखो। भी देख पड़ती है। (Levitiens IV. 13)। आजकल अग्निकुमाररस-ज्वर, ग्रहणो और अग्निमान्द्यका भी कोई-कोई खुष्टान-सम्प्रदाय प्रकारान्तरसे अग्नि औषध । पारा, गन्धक, विष, त्रिकटु ( सोंठ, मिर्च, पूजा करता है। किन्तु किसी भी जातिके बीच में पीपल ), सुहागका लावा, लौहभस्म, अजवायन और पहिले जैसी अग्निपूजाको धूम नहीं। अग्निका रासायनिक तत्त्व अफीम तुल्यांशमें ले । समसमष्टिके समान जारित अध और अग्ना त्पादनकौशल-अग्निशिखा, अग्निमन्ध, अग्निस्तम्भ और ताप शब्दमैं फिर मिलाये। चित्रकके रस में इन सब औषधियोंको देखी। एक पहर घोटकर मिर्च जैसी गोली बना डाले । अनु- शिशुमार नक्षत्रके पुच्छ नक्षत्रका पान अवस्था भेदसे कपूरका पानी, जोरा, जामुनके अग्नि है। बकलेका रस या ठण्डा जल है। नाम भी