पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/११४

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अग्निकुल-अग्निगर्भ । अग्निकुल-राजवंश विशेष । राजपूतानेके आबू पहाड़ फुलझड़ी-गन्धक सौमें २२ भाग, शोरा ७०, हर- पर ऋषिमुनियोंका आश्रम था। कहते हैं, कि दैत्य ताल ५॥, अरहरका कोयला २॥; यह कई चीजें उनके साथ उत्पात करते रहे। उनके अग्निकुण्डमें पहिले अलग-अलग ले अच्छी तरह चूर करे, इसके अस्थि, रक्त, मांस डाल देते, जिससे यज्ञमें बड़ा बाद होशियारीसे एकमें मिला काग़ज़के लम्बे चोंगमें विघ्न पड़ता था। यह उपद्रव दूर करने के लिये ऋषियों भरे । रातको इसको एक ओर आग लगानेसे बढ़िया ने अग्निकुण्ड जलाकर शिवको आराधना को। सुतरां सफ़ेद रोशनी होती है। वैदिक कार्यको रक्षा करनेके लिये यज्ञकुण्डसे क्रमा अनार-शोरा सौमें ५४॥, गंधक ६॥, पारा ३, न्वयमें परिहार, चुल्क, परमार और चाहमान इन मुद्राशङ्ख १, हरताल १६, और कोयला ३ भाग ले; चार महावीरोंने जन्म ले दैत्योंको विनष्ट किया। पहिले पार और गन्धकको एक हीमें मिला दे। इसके परमार, परिहार प्रभृति देखो। बाद हरताल और मुद्राशङ्ख दोनो एकमें पोस ले ; अग्निकेतु (सं० पु०) अग्नेः केतुरिव । चाय-तु केतुः अन्तमें सब चीजे एक ही साथ पीसे । पिस जानेपर चायः किः । उए १।७३ । १ अर्द्ध गामी अग्निको शिखा, ऊपर चूर्णमें १६ भाग लौहचूर्ण या लोहेका बुरादा डाल दे। जानेवाली आगको लपट। २ ऊर्द्धगामी धूम, ऊपर मट्टोके अनारमें यह चूर्ण भर अँधेरी रातके समय आग चढ़नेवाला धुआं। लगानसे अच्छे फूल छूटा करते हैं। अनारको बारूद अग्निकोण (सं० पु.) अग्नेः अग्निदेवाधिष्ठितः कोणः । ज्यादा पोसना या उसके भीतर ज्यादा ठूसना न. पूर्व-दक्षिण कोण । इस कोणके दिक्पाल अग्नि हैं। चाहिये। अग्निक्रिया (संस्त्री०) अग्नौ क्रिया क-श । कञः श च । पा० पौली रोशनी-शोरा सौमें २७, गन्धक २७, नमक ३४३१०० । अन्त्येष्टिक्रिया। विधिपूर्व क अग्निमें १८ और बारूद २७ भाग एक साथ मिलाये। पौके मृतदेह दग्ध करना। मुरदे का जलाना। इस चूर्ण में आग लगानेसे बहुत अच्छी पौली अग्निक्रीड़ा (सं० स्त्री०) आगका खेल। रङ्ग-रङ्गको रोशनी निकलती है। आग जलाना, आतिशबाजी। नौली रोशनी-क्लोरेट् अव पोटास् सौमें ७५, पागका खेल-चैत्रमें एक मासके महाव्रतके समय गन्धक ८, जाङ्गाल १७ भाग लेकर लोरेट अव् पोटास संन्यासी अन्तिम दिन और रातको नाना स्थानों और गन्धक अलग पौसे, फिर सब चीजोंको एकमें से काठको आहरण कर प्रज्वलित करते हैं। पीछे मिला ले। मिलानेके बाद फिर पौसना न चाहिये। ज्वलन्त अङ्गारोंपर चलते-फिरते और उन्हें चारो ओर इस चूर्ण में रातको आग लगानेसे बहुत ही अच्छी फेंकते हैं। इस आगके खेलका नाम फूल-खेल नीली रोशनी होती है। है। एक मासके महाव्रतके समय बङ्गालमें प्रायः सभी अग्निगड़ (हिं० पु०) चारो ओर आग जलाकर भूत- जगह यह उत्सव होता है। किन्तु गवर्नमेण्ट द्वारा प्रत झाड़ना। चड़क-पूजा बन्दकर दी जानसे, कितने ही गांवों में अग्निगर्भ (सं० पु०) अग्निः इव जारकः गर्भ: यस्य । खेलको धूमधाम नहीं देख पड़तो। १ अग्निजारक वृक्ष, वह पेड़ जिसका भीतरी भाग आतिशवाजी-अन्नप्राशन (पसनी), यज्ञोपवीत, अग्नि जैसा लाल हो, अग्निगर्भे यस्य । २ सूर्यकान्त- विवाह, दोल, रासयात्रा प्रभृति उत्सवों में अनेक कालसे ३ आतिशौ शौशा। धूपमें आतिशी शीशा भारतके बीच आतिशबाज़ी छोड़नेकी प्रथा चली आती रखनेसे थोड़ी ही देरमें उसके नीचे रखी हुई कोई है। इनमेंसे विवाह, दोल और रासयात्रामें इसको भी हलकी चीज जल उठती है। (स्त्री०) अग्निः. धूम कुछ खास तरहको होती है। नीचे लिखी गर्भे अस्याः । अग्निगर्भा, शमौलता। बवूलका पेड़। आतिशबाज़ियां अधिक प्रचलित हैं- शमोगर्भ और शमौलता देखो। 1 अब फूल मणि।