पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१२१

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अग्निमान्य-अग्निमुख ११५ प्रति दृष्टि रखनसे अन्य कोई औषध न चाहिये। जो हकीमी-यूनानी मतसे जुयारिशे-सङ्गदान-ए- मुर्ग. अमितभोजी हैं, उन सकल व्यक्तियोंको आहारके प्रति अग्निमान्य रोगका महौषध है । यह मुर्गोको पेप्सिन् दृष्टि रखना चाहिये। वह प्रति दिन यथाकालमें सत् यानी पाकस्थलोवाली लमिक झिल्लोसे तय्यार पथ्य खायें, क्षुधाबोध न होनेसे आहार न करें। और होता है। यह औषध प्रतिदिन प्रातःकालमें एक तोला मनस्तापके लिये अग्निमान्य होनेसे चित्त प्रफुल्ल मात्राके हिसाबसे सेवन करना चाहिये । हकीम अग्नि- रखनेको यत्नवान् हों। मान्यमै अर्क और सत भी देते हैं। सचराचर निम्न होमियोपैथी-उदरमें भार बोध और वेदना, उगार, लिखित औषध भी व्यवहृत हुआ करते हैं-आध छातीको जलन, और उदराभान होनेसे नक्सभमिका पाव सोंठ, ३ तोला कालीमिर्च, १ तोला पीपल, १ प्रत्यह तीन बार सेवन करना चाहिये। अर्शरोग तोला छोटी इलायची, आध तोला नौसादर, आध या बबासीरका कोई पूर्व लक्षण जान सकनेसे सवेरे तोला दूधसे सोधा गन्धक, आध पाव चार तरहका नक्सभमिका और सन्ध्याको सल्फर सेवन करना कर्तव्य नमक, जैसे—सन्धव, साँभर, काला नमक और सोंचर; है। बार-बार विरेचन यानी के या गुरुतर भोजनके यह सब द्रव्य एकमें पीस और नीबूके रसमें भिगोबड़ी- बाद अजीर्ण होने पर पल्सेटिला खानेसे उपकार होता बड़ी गोली बना डाले और धूपमें उन्हें सुखा ले। पोछे है। कोष्ठबद्ध, मस्तक वेदना आदिमें ब्राइअोनिया एक-एक गोली मुहमें रख उसका रस चूसा करे। यह महौषध है। आहारमें अरुचि होने और खाद्य द्रव्य गोलियां अपने अम्लास्वादके कारण अग्निमान्द्यवाले मुखमें विस्वाद लगनेसे पुरातन अग्निमान्द्य रोगमें रोगीको बहुत रुचिकर होती हैं। ऐण्टो मनियम् क्रूडम्, सलफ़र, हेपार, सफ़िरिस्के अग्निमान्द्यरोगीको सर्वथा यह कई नियम प्रति- देनेको व्यवस्था करे। सिवा इसके शरीर दुर्बल पालन करना चाहिये-दिनको न सोना, आहारके होनेसे चायना, फस फुरिक एसिड, फसफरस और बाद परिश्रम न करना, रातको न जागना, मादक फेरमको सेवन करना उचित है। अजीर्णके कारण द्रव्य या नशा न खाना और खराब चौजका खाना हिक्का यानी हिचकी आनेसे नक्सभमिका, जेल एकबारगी हो छोड़ देना। सिमिनम्, आर्सेनिक खिलाये। अग्निमारुति (स० पु०) अग्निश्च मरुच्च तयोरपत्यं एलोपेथी-अग्निमान्द्यरोगमें पेप्सिन महौषध है। पुमान्। वाह्यादिभ्यञ्च । पा ४।१।६६ । अगस्त्यमुनि। अगस्त्यने भोजनसे पहले ही ३ रत्ती पेप्सिन पोर्साइको हो अग्नीमारुतके औरससे यज्ञीय कुम्भमें जन्म ग्रहण किया था। अगस्त्य देखो। सेवन करे । भोजनसे पीछे चौथाई ग्रेन इपिकाक चूर्ण, १ ग्रेन कुनैन और २ ग्रेन जेन्सियानका सार इकट्ठा अग्निमित्र (स० पु०) शुङ्ग-वंशीय द्वितीय नृपति, गोलो बनाकर खानेसे भी विशेष उपकार होता है। शुङ्ग वंशके दूसरे राजा। यह मगधके अधोखर थे। मौर्यवंशीय अन्तिम राजा बृहद्रथ के सेनापति पुष्यमित्र उदरामय या आँव रहनेसे ५ ग्रेन ट्रिस नाइट्रेट अव विस मथ्, २ ग्रेन सोंठका चूर्ण और २ ग्रेन पेप्सिन अपने स्वामीको नष्ट कर आप होराजा बन बैठे। अग्नि- इकट्ठा मिला एक पुड़िया बांध ले। यह औषध प्रत्यह दो मित्र पुष्यमित्रको सन्तान थे। अग्निमित्रको मृत्यु बार सेवन करनेसे उदरामयको शान्ति हो सकती है। बाद उनके पुत्र सुज्य ष्ठ मगधके राजा हुए। भागवत १२।१ अः। [शुङ्गवंश देखो। वैद्यक-अग्निमुखचूर्ण, अग्निकुमाररस, अग्निमुखरस, अग्निमुखलवण, अग्निमुखलौह, अजीर्णबलकानल, अग्निमुख (स० पु०) अग्निमुखमिव यस्य । १ देवता। शजवटी प्रभृति औषध अग्निमान्य रोगमें प्रयोज्य हैं। देवता अग्निरूप मुखसे हव्यको पान करते हैं। इन सब औषधीका उपकरण और इनके प्रस्तुत करनेकी प्रणाली तत्तत् २ ब्राह्मण। ३ चिता, चौत। ४ भेला, भल्लातक । शब्दमें देखो। (क्लो०) ५ क्षुधा वृद्धि के लिये अग्निमुख औषध-विशेष ।