पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१२४

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२१८ अग्निविद्-अग्निशिखा मान्द्य । वह बीमारी जिसमें हाजमा बिगड़ जाता है । | अग्निशमन् (स० त्रि०) अग्नि-शृ-मनिन् अग्निरिव शणाति अग्निविद् (स'० पु०) अग्नि-विन्द वा विद्-क्विप् । पराभवति । सर्वधातुभ्यो मनिन्। उण ७।१४४१ । इति मनिन् । १ साग्निक ब्राह्मण । २ अग्निरहस्यवेत्ता। अतिक्रोधी, निहायत गुस्सावर। (पु.) ऋषि अग्निविद्या (सं० स्त्री०) अग्निहोत्र। अग्निको उपासना। विशेषका नाम । जब कोई अधिक कोपान्वित होता अग्निविन्दु (स० पु०) विदि-उ विन्दु, चात् विदि अवयवे । है, तो कहते हैं-"वह तो मानो अग्निशर्मा बन गये।" उण् १ १०॥ इति उ। ६-तत्। स्फु लिङ्ग । अग्निकणा। अग्निशाल, अग्निशाला (स• स्त्रो०) अग्निनां शाला आगको चिनगारी। गृहम् । अग्न्याधानका स्थान । अग्निविवईन (स० वि०) जठराग्निको बढानेवाला, अग्निशिख (सं० पु०-क्लो०) अग्नेरिव अग्निरिव वा हाजमेको तरक्की देनेवाला। शिखा यस्य। १ वाण। २ स्वर्ण, सोना। ३ कुसुमवृक्ष, अग्निविश्वरूप (सं० पु०) केतुओंका एक भेद। कुङ्कुम । ४ विषलाङ्गलो। अग्निविसर्प, अग्निवीसर्प (स० पु०) फोड़े का दर्द । इस 'अथाग्निशिख मुद्दिष्ट कुमुम्भे कुडुमऽपि च । रोगके होनेसे सब शरीर अङ्गार जैसा गर्म हो और लाङ्गलिक्याख्यौषधौ च विशल्यायाच योषिति।' (मेदिनी) रक्त काला पड़ जाता है। रोगीके शरीर में पौड़ा उत्- अग्निशिखा (सं० स्त्री०) अग्नेः शिखा । १ अग्निज्वाला, पन्न होती, उसे मूर्छा आजाती और उसकी आंख लपट। अग्ने : शिखेव शिखा यस्य। (पु०) लाङ्गलो- नहीं लगती है। वृक्ष। फलिनी, शत्रुपुष्यो। अनन्ता। विश त्या देखी। अग्निवौज (सं० लो०) ६-तत् । स्वर्ण, सोना । अग्नि- यह समझने के लिये, कि अग्निशिखा क्या है, पहले शुक्र जातत्वात् । अग्निके शुक्रसे उत्पन्न होनेपर सोने काष्ठ प्रभृति दाह्य पदार्थों के जलनको रीति जानना का नाम अग्निवीज पड़ा है। आवश्यक है। अक्षिजेन शब्दमें अम्लजानका वृत्तान्त अग्निवीर्य (स. ६-तत् । १ स्वर्ण, सोना। लिख दिया गया है। हम निखासके साथ जो वायु बहुव्री। २ अग्निका पराक्रम, आगको ताकत । (त्रि.) खींचते हैं, उसके पांच भागमें एक भाग अक्षिजेन अग्नितुल्य बलशाली, आगको बराबर ताकतवर। रहता है। जगत्को अनेक वस्तुओं के साथ अक्षिजन अग्निवृद्धि (स० स्त्री०) क्षुधावृद्धि, भूख बढ़ना, हाजमे- मिल जाता है। इसौसे, अक्षिजन और अन्यान्य का तरक्की पाना। पदार्थक संयोगसे सर्बदा ही नये नये पदार्थ उपजते अग्निवेश (सं० पु०) महर्षि आत्रेयके शिष्य। यह हैं । अक्षिजनके अन्य पदार्थके साथ मिलनेसे जो तापो- पञ्चाल राज्यमें रहते थे और इन्होंने आयुर्वेद बनाया था। त्पन्न होता है, उसीको हम दग्ध होना या जलना अग्निवेश्मन् (सं• पु०) अग्नि वेश्मनि गृहे यस्य । १ कहते हैं। पदार्थ-समुदय एक प्रकारसे नहीं जलता। जनैक मुनि। इनके नामसे एक गोत्र प्रवर्तित हुआ है। कोई वस्तु सड़-सड़ और कोई वस्तु आग जैसो बन २ बयालीस गोत्रोंके अन्तर्गत गोत्र-विशेष। गोब देखो। जला करती है। किसी-द्रव्यमें अल्प-अल्प अक्षिजन अग्निवेश्य-धनुविद्याविशारद अग्निके पुत्र-विशेष । घुसनेसे उसको सड़ना कहते हैं। काष्ठादिमें इसको द्रोणाचार्यने इनके निकट धनुर्विद्या सौख अग्न्यस्त्र अपेक्षां और भी कुछ शौन-शीघ्र अषिजन को लाभ किया था। (महाभारत आदिपर्व ।) पहुंचनेसे सचराचर हम लोग कहा करते हैं, कि अग्निवेश्यायन (सं० पु०) अग्निवेश्यका गोत्रापत्य । लकड़ी धीरे-धीरे सुलग रही है। इससे अधिक अग्निव्रत (सक्लो०) अग्निसंस्कार। अक्षिजेन जब लकड़ीमें घुसता है, तब वह लकड़ी अग्निशरण (स० क्लो०) ६-तत् । अग्न्याधानग्रह । धार्य-धायँ जलने लगती है। बारूदमें आग लगनेसे अग्निहोत्रम्ह । “तथेत्यु ताग्निशरण प्रविवेश निवेदितुम् ।" अििवजन पहुंचते कुछ भी देर नहीं होती, इसोसे रामायण, अरण्यकाण्ड, १२ अ०, ५ श्लोक । वह पलक मारते बातको बातमें जल उठती है। अल्प .)