पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१२५

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अग्निशिखा ११६ । तापसे अनेक पदार्थ के साथ अक्षिजेन सहजमें नहीं पत्थर जैसा कोयला बन गये हैं। पत्थर का कोवला देखो। मिल सकता,-जैसे लोहा। लोहेमें मुरचा लगनेसे लकड़ीका कोयला और पत्थरका कोयला विशुद्ध अङ्गार यह बात कही जा सकती है, कि वह सड़ता या (Carbon) नहीं है। काष्ठादि जलनेसे जोराख निकलती, गलता है। कारण, लोहे के साथ अक्षिजेन मिलनेसे वह क्षार प्रभृति पार्थिव पदार्थ है। गर्मों पहुंचनेसे "लोहजरा" (Oxide of Iron) निकलता है. जिसे लकड़ीके विशुद्ध अङ्गारका भाग अक्षिजन-संयोगसे हम मुरचा लगना कहते हैं। अङ्गारक बाष्प (Carbon dioxide or Carbonic Acid जलती हुई आगकी भट्ठीमें एक लोहे का टुकड़ा gas) बन उड़ जाता है। अतएव देख पड़ता है,कि जल डाल देनेसे वह गर्म और लाल हो और फिर बाहर जलकर जलीय बाष्य (Steam) और अङ्गार जलकर निकालनेसे ठण्डा और काला पड़ जाता है, उसका अङ्गारक-बाष्पको उत्पत्ति होती। जलीय बाष्य ठंढा वज़न नहीं घटता। ऐसे स्थलमें लोहा आग जैसा होकर मेघ और जल बन जाती है। अङ्गारक बाष्पको होता, किन्तु जल नहीं जाता। लोहेको लकड़ोकी वृक्षादि निवासके साथ खींचकर कार्वन् रख लेते और तरह जलाने के लिये अधिक ताप आवश्यक है। कारण, अक्षिजेन् छोड़ देते हैं। इसो अङ्गारसे वृक्षादि पुष्ट बने लोहे के साथ अक्षिजेन सहजमें नहीं मिल सकता । रहते हैं। पीछे अन्यान्य पदार्थके साथ मिल वह काष्ठ किन्तु अनेक द्रव्योंके साथ अषिजन सहज में मिल और पत्र में परिणत होते हैं। फिर इस काष्ठ और जाता है। जैसे, कार्वन् और हाइड्रोजन् (Carbon पत्रके पुनर्वार सड़ने या जलनेसे वृक्षमें अङ्गारक-बाष्प and Hydrogen)। लकड़ा, पत्थरके कोयले, तेल, उपजती है। उसी अङ्गारक-बाष्यसे पुनर्वार लकड़ी चर्बी, घी प्रभृति द्रव्योंमें का-न् अथवा हाइड्रोजेन् बनती है। जगत्का यह बड़ा ही आश्चर्य-कौशल है। अधिक रहता है। इसौसे आगका प्रयोजन पड़नसे सूर्यको रोशनो पानेसे वृक्षादि वायुका अङ्गार निकाल- यह सकल द्रव्य हम अधिक बरतते हैं। कलकत्ता कर अक्षिजेन्का भाग छोड़ सकते हैं। अङ्गारक बाष्प शहरमें जिस गेसको रोशनी होती, वह पत्थरके लेते समय वृक्ष सूर्य-किरण के कियदंश उत्ताप और कोयलेसे बनाई जातो है। कार्वन् और अक्षिजनसे आलोकको सञ्चय कर रखते है। उनके शरीरमें यह मिली वस्तुको ही हम गैस कहते हैं। इस गैसके परिपाक नहीं होता। काल पाकर जब फिर उसो बीच अलिफाएण्ट (Olefient gas) नामको एक लकड़ीमें अक्षिजेन्के मिलनेका अवसर आता, तब यह प्रकार बाष्प रहती, जिसकी रोशनी बहुत तेज़ होती सूर्यकिरण कुछ बाहर निकाल देनी पड़ती है। इसी है। हाइड्रोजन्के जलते समय अग्निशिखाके ऊपर कारण आग जलानेसे गर्मों और रोशनी होती है। एक पात्र ढांक देनेसे उसमें पसीनेको तरह बूंद-बूंद कितने ही युग-युगान्तरको सूर्यकिरण राणीगञ्जको पानी इकट्ठा हो जाता है। मट्टीके नीचे दबी पड़ी है, जिसे आज हम बाहर लकड़ी और पत्थरके कोयलेमें कार्वन्का भाग निकाल अन्नादि रांधते हैं। अङ्गारादि जलते समय नई अधिक होता है-लकड़ीमें सैकड़े पीछे ४५से ५२ विमिश्र बाष्प निकल जब ऊपरको उठती, तभी इस और पत्थरके कोयलेमें ७४से ८४ अंश। लकड़ी उत्तापसे उत्तप्त हो बाष्य ज्योतिर्मय मूर्ति धारण करती का जला कोयला और पत्थरका कोयला प्राय एक ही है। यही अग्निशिखा है। पदार्थ है। लकड़ीके कुछ जल जाने बाद उस पर मट्टी शिखाका भीतरी भाग अग्निमय नहीं होता। ऐसा डाल देनेसे जिस तरह कोयला तय्यार होता, पत्थर होनेसे अधिक उत्ताप होता, किन्तु प्रचुर रोशनी न के कोयलेको भी उत्पत्ति प्राय उसी तरह है। कितने होती। हाइड्रोजन् और अक्षिजेन् सम्मिलित जलनेसे युग-युगान्तर हुए, कि बड़े बड़े जङ्गल मट्टीसे ढके पड़े जो शिखा (Oxyhydrogen flame) उठती, उसका हैं, जिससे वह अक्षिजनके प्रभाव द्वारा धीरे-धीरे ताप इतना उग्र होता, कि वह लकड़ीको तरह लोहेको