पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१२८

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१२२ अग्निष्टोम था। उसी समयसे देवगण जयो और असुरगण पराभूत याज्ञवल्क्यने कहा, कि वह एक समय यज्ञोपयुक्त हुए। जो यह विषय जानता, वह जयी और उसका स्थान अन्वेषण करते थे। पथिमध्यमें सात्ययनसे हेषकारी पापौ शत्रु पराभूत होता है। यही यह मुलाकात होनेपर उन्होंने कहा था, कि सकल अग्निष्टोम, यही वह गायत्री हैं। क्योंकि, गायत्रोके स्थानों में यज्ञ होती थो, वह जिस स्थानमें चाहते, यन्त्र चौविस अक्षर और अग्निष्टोमके भी स्तोत्र और करते । सुतरां शत्पथ-ब्राह्मण के मतसे सभी जगह यज्ञ शस्त्र चौबोस ही हैं।' हो सकता है। यज्ञ स्थानमें एक यज्ञवेदीको निर्माण 'इस स्थल में (ब्रह्मवादी) कहते हैं, कि अन्नमय अग्नि- करना आवश्यक है। यज्ञमण्डप चतुरस्र और चारो- ष्टोम सुठुरूपसे अनुष्ठित होने पर ( यजमानको) सुधा दिक्में बारह अरनि-प्रमाण होगा। उसको चारो ओर यानो स्वर्गमें स्थापन करता है। इस वाक्यका लक्ष्य तृणाच्छादित करना आवश्यक है। इस यज्ञमें वेदवित् गायत्री है। क्योंकि, गायत्री क्षमा अर्थात् पृथिवीमें साग्निक ब्राह्मण ही अधिकारी हैं। इसमें सोलह क्रीड़ा नहीं करतीं ; वह ऊईगामिनी हो यजमानको ऋत्विकीका प्रयोजन पड़ता है। यह सोलह लेकर स्वर्गमें चली जाती हैं। अग्निष्टोम भी इस वाक्य जन फिर चार भागोंमें विभक्त होते हैं। यथा- का लक्ष्य हैं, क्योंकि अग्निष्टोम भी पृथिवीमें क्रीड़ा नहीं होटगण, ऋत्विकगण, अध्वर्युगण और उगातृगण । करते,वह भी ऊर्द्धगामी हो यजमानको लेकर स्वर्गमें चले आपस्तम्बके मतसे इसमें सदस्यका भी प्रयोजन है। जाते हैं। यह जो अग्निष्टोम हैं, उन्हींको संवत्सर इन सत्रह ऋत्विकोंमें होता, उद्गाता, अध्वर्यु और समझना चाहिये। क्योंकि संवत्सरके अईमास चौबीस, ब्रह्मा यही चार जन प्रधान हैं। और सकल इनके और अग्निष्टोमके भी स्तोत्र और शस्त्र चौबीस होते सहकारी हैं। सदस्य सकल के दोषगुणको परिदर्शन हैं। स्रोतस्वती सकल जैसे समुद्र में प्रवेश करतों, वैसे ही करता है। प्रशास्ता, अच्छावाक और ग्रावस्तोता यह सकल यज्ञक्रतु भी अग्निष्टोममें प्रविष्ट होते हैं।* तीन जन प्रधान होताको साहाय्य देंगे। इसी रूपसे यह यज्ञ करनेसे प्रथम पुण्यलक्षणयुक्त भूमि अन्वे प्रतिप्रस्थाता, नेष्टा और उन्नता यह तीन जन षण कर उसमें यज्ञवेदी करना आवश्यक है। किन्तु अध्वर्युको, ब्राह्मणाच्छंशी, अग्निट और पोता यह शतपथ-ब्राह्मणमें लिखा है, "तदुहोवाच याज्ञवल्क्यो वार्माय तौन जन ब्रह्माको, और प्रस्तोता, प्रतिहर्ता और देवयजनं जीवयितु मैम तत् सात्ययज्ञोऽब्रवीत् सर्वा वा इयं पृथिवी देवयजनं सुब्रह्मण्य यह तीन जन उद्गाताको साहाय्य देंगे। यव वा अस्मे क्वच यजुषैव परिका याजयति।" अग्निमुखमें देवताका स्तव और आवाहन करना होता, देवताओंका सन्तोषजनक सामगान करना उद्- • "देवा वा अमुरडमुप प्रायन् विजयाय तानग्निर्नान्वकामयतैतु' तं देवा अव बन्नपि त्व मेह्यस्माकं वै व मेकोऽसौति स नास्तुतोऽन्वेष्यामौत्यत्रवीत्- गाता, और कर्म-विशेषमें अनुमति देना, सबके कार्यको स्तुत नु नेति तथेति तं तै समुत्क्रम्योपनिवृत्तवास्तृवंस्तान् स्तुतोऽनु प्रेस वियणि- पर्यवेक्षण करना और मन्त्र जपना ब्रह्माका कार्य है। भूत्वा त्यनीको ऽसुरान् युद्ध मुप प्रायद् विजयाय विश्रेणिरिति छन्दांस्य व साधारणतः यह यज्ञ पञ्चासाध्य होता है। इसके श्रेणीरकुरुत बानीक इति सबनान्येवान कानि तानसम्भाव्यं पराभावयत् ततो सिवा यह यज्ञ बहु दिनव्यापी भी हो सकता है। वै देवा अभवन् परानुरा भवत्यात्मना । रास्व विषन् पापमा धातृव्यो भवति दोसे बारह दिन व्यापी यह यज्ञ होने पर उसे अहीन य एवं वेद सा वा एषा गायवेधव यदरिष्टोमचतुर्विंशत्यक्षरा वै गायबी चतुर्वि- और पक्ष अथवा बहुकालव्यापी होने पर उसे सत्र शतिरग्निष्टोमस्व स्तुतशस्त्राणि तई यदिद माहुः सुधायां ह वै बाजी मुहितो दधातीति गायबी वे तन्न ह वै गायत्री क्षमा रमत ऊो ह वा एषा यजमान कहते हैं। पांच दिनमें जिस स्थल पर यह यज्ञ समाप्त मादाय वरतीत्यग्निष्टोमो वै तन्न ह वा पग्रिष्टोमः क्षमा रमत ऊों ह वा एष होता, उस स्थल पर प्रथम दिन यज्ञदीक्षा, और यजमानमादाय स्वरति स वा एष संवत्सर एवं यदग्रिष्टोमयतुर्विशत्यईमासो व दीक्षणादि तदङ्गानुष्ठान सम्पूर्ण हुआ करता है। संवत्सरबतुर्विशतिरग्निष्टोमस्य स्तुतशस्त्राणि तं यथा समुद्र' स्रोत्या एवं सर्वे पहिले यजमान ऋत्विक्गणको वरण करे, तदनन्तर यज्ञकतवो ऽपि यन्ति ॥” (पत ब्रा० ३१). ऋत्विक् यजमानका हाथ पकड़ पूर्वोक्त यज्ञमण्डपमें