पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अग्निष्टोम १२३ 1 ले जाकर दीक्षित करे। दीक्षाग्रहण काल में यजमानके से उपसद नामक यज्ञ अनुष्ठित होता है। इसमें सवेरे आगे क्षौरकार्य, स्नान, नववस्त्र-परिधान और माङ्गल्य और सन्ध्याको सोम और विष्णु देवताके उद्देशसे घृता- द्रव्य धारण करने पर ऋत्विक् दर्भपिञ्जली अर्थात् हुति द्वारा होम किया जाता है। इस उपसद नामक कुशगुच्छ लेकर यजमानके सर्वाङ्गको मार्जन करे। अङ्गकार्यमें दूसरी एक पृथक् वेदोको निर्माण करना अनन्तर वेद-मन्त्र पढ़ते-पढ़ते यज्ञमण्डलके पूर्वहारसे आवश्यक है। इस वेदोका नाम सौमिक वेदी है। यजमानको उसके बीच ले जाये। वहां पहुंचने पर उसे यह वेदी निर्मित होनेसे अध्वर्यु और प्रतिप्रस्थाता यज्ञदीक्षित करना पड़ता है। यह यज्ञदीक्षा एक क्षुद्र हविर्धान दो शकट उत्कर गर्तमें धो कर पश्चिम हारसे होममात्र है। इसका नाम दौक्षणीय इष्टि है। इस इष्टि महावदोके निकट ले जाये। पीछे हविर्धान और में एकादश पुरोडाश होम किया जाता है। इस तरह सदोमण्डप नामक वेदियां भी निर्मित करना पड़ती यजमानके यज्ञ-दीक्षित होनेसे प्रथम अध्वर्यु, देवता और हैं। यह मण्डप दश अरनिप्रमाण, पूर्वायत, नौ अरवि मनुष्योंको आवाहन कर कहे,-"अदीक्षिष्टायं ब्राह्मणः" दीर्घ, चतुरस्र, स्तम्भ-सुशोभित और विशेष परिष्कृत यह ब्राह्मण यज्ञ-दीक्षित हुआ है। अनन्तर दीक्षित करना आवश्यक है। यजमान निजमें प्राणेष्टि नामक एक क्षुद्र याग करे। उल्लिखित सदोमण्डप या अग्निशालामें जो इस यागमें चरुपाक कर उसके द्वारा अदिति, और वेदी निर्मित की जातो हैं, याज्ञिक उन सबका घृत द्वारा अग्नि, सोम और सूर्यका होम करना पड़ता नाम धिष्णा निर्दिष्ट करते हैं। इनमें होताके लिये एक, है। इस इष्टिके समाप्त होते ही प्रकृत प्रस्तावमें यज्ञका मैत्रावरुणकी एक, प्रशास्ताको एक, ब्राह्मणाच्छंशीको आरम्भ होता है। पौछे दूसरे दिन प्रापणीय याग और एक, पोताको एक, नेष्टाको एक, अच्छावाकको सोमलताको क्रय करना पड़ता है। यह सोमलताक्रय एक, यह सात धिष्णा सदोमण्डपके मध्य निर्मित एक अपूर्व व्यापार है। प्रतिप्रस्थाता नामक ऋत्विक होते हैं। उपरव-प्रदेशमें एक वषचर्म बिछा उसके ऊपर कुश महावेदी निर्मित होने पर वैसर्जन नामक होम फैला दे। इसी स्थल में सोमविक्रेता सोमभार स्थापित करना पड़ेगा। यह होम समाधा होनेसे अग्निष्टोम करेगा और सोमके अंशु सकल परीक्षा और परिष्कार यज्ञका पशयाग आरम्भ होता है। यह याग सोमयागका करते रहेगा। पीछे यजमान सत्रह जन ऋत्विकोंके पूर्वाङ्ग है। इसी समय प्राक्वंशशालामें उत्तर वे दिस्थित साथ आगमन कर उसे क्रय करेगा। यह सोम मूल्य सोमलता सकल आनौत हो हविर्धान मण्डपमें स्थापित दे कर क्रय करनेसे काम न चलेगा,-एक अरुणवर्ण की जाती हैं। पीछे अग्निष्टोमीय पशुको पवित्र जलसे पिङ्गलचक्षु एक वर्षको गैया दे कर खरीदी जायेगी। स्नान, यूपके सम्मु खमें पश्चिमाभिमुखमे स्थापन, और सोमक्रयके विस्तृत विवरण के लिये सोम शब्द देखो ! कुशपिञ्जलोयुक्त प्लक्ष-शाखा द्वारा मन्त्रपूत किया जाता यजमान यथाविधानसे सोम क्रय कर यागदहके है। इस प्रकार मन्त्रपूत करनेका उपाकर्म कहते हैं। पूर्वदारसे ले जाकर आहवनीय नामक अग्निकुण्ड सुलक्षणाक्रान्त पशु हो यज्ञ में ग्रहणीय है, रुग्न, शिशु दक्षिण दिकस्थ मृगचर्मावत काष्ठ-पीठ पर रख दे। प्रभृति पशु यन में व्यवहृत न होगा। इस समय एक आतिथ्य ष्टि नामक क्षुद्र यज्ञ करना पड़ता उक्त पशु जब बदस्थानमें नीत होता, तब ऋत्विक है। इस यज्ञका तात्पर्य यही है, कि राजा सोम मानो उच्च स्वरसे वेदमन्त्रको लगान करते रहेंगे। संज्ञपन ग्यहमें अतिथि हुए हैं। सुतरां उनका यथोचित अतिथि अर्थात् वधकार्य समाप्त होने पर पीछे पशुके निम्न- सत्कार करना उचित है। इसी भावसे इस इष्टिका लिखित अंश सकलको कर्तन कर शामित्र नामक अग्नि- सम्पन्न करना होता है। कुण्डमें उसे पाक कर वेदमन्त्र गाते-गाते हृदय, पौछ होमक विघ्नकारी असुरोंकी पराभव-कामना जिह्वा, वक्ष, यवत्, हक्कइय, वामहस्त, पार्श्व इय, 1