पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१३३

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अग्निस्तोक-अग्निहोत्र १२७ मुहमें जो रबड़ का नल लगाया जाता है, उसी राह- यवागुसे होम करे। दूसरे दिन इसमें प्रत्यवाय नहीं, से कोई बोस हाथ ऊपर चढ़ ठोक फ.ब्वारको तरह कि ऋत्विक् स्वयं करे, किम्बा यजमान द्वारा कराये। जोरमें बाहर जा गिरता है। इसके बाद जिस इसौ रूपसे शत होम समाप्त होनेसे प्रातःकाल सूर्य ओर नलका मुंह घुमाकर रखा जायेगा, उसी ओर देवता और सन्ध्याकालमें अग्निदेवताका होम करे । जलस्रोत बहेगा। छोटो कलमें अधिक पानी नहीं अग्न्याधानके पीछे प्रथम पूर्णिमामें दर्शपौर्णमासयाग- समाता, इसलिये अधिक पानी आवश्यक होनेसे को आरम्भ करना आवश्यक है। इसमें पोर्णमासीको बड़ी कल रखना उचित है। बड़ो कलमें दो बड़े-बड़े तीन और अमावस्याको तीन, दर्शपौर्णमासके यही मटके रहते हैं। एक मटकेका पानी न खर्च होते छः यज्ञ होते हैं। इनका भी अनुष्ठान यावज्जीवन ही दूसरा पानी आदि डालकर ठोक किया जा करना पड़ता है। सकता है। तैत्तिरीय-ब्राह्मणमें लिखा है, पूर्वकालमें किसी अग्निस्तोक (स० पु०) चिनगारी, अग्निकणा । समय प्रजापतिके भयसे भीतिहीन अग्नि पलायन अग्निस्तोम-अग्निष्टोम देखो। करनेसे विरत होने पर प्रजापतिने उसी अग्निमें अग्निस्वात्त, अग्निष्वात्त (सपु०) अग्नितः आत्तं स्वाहोच्चारणपूर्वक होम करना आरम्भ किया। प्रथम ग्रहण येषां, अग्नि-पा-दा-क्त । बहुव्री० । १ मरीचिपुत्र, आहुतिसे पुरुष उत्पन्न हुआ। इसी तरह हितोयादि मरीचिके लड़के । २ पिटगणविशेष । आहुतिसे अवादिने जन्म ग्रहण किया। अतएव अग्निहानि (सं० पु०) अग्निमान्द्य, भूख न लगना। पुनर्वार प्रजा उत्पन्न होनेसे ब्रह्माका प्रजापतित्व अग्निहुत् (सं० पु०) अग्नि-हु-क्किप, ६-तत्। अग्नि अव्याहत हो रहा। तब अग्निको यह भय हुआ, कि होत्री, अग्निमें आहुति देकर यज्ञ करनेवाला। प्रजापति पुनः पुनः आहुति द्वारा उन्हें पायेंगे, और अग्निहोत्र (सं० लो०) अग्नि-हु-त्र, अग्नये इयते अत्र, फिर उन्हें भाग न देंगे ; तत्पदत्त आहुति देवता ४-तत् । यज्ञविशेष, एक प्रकारका यज्ञ । ग्रहण करेंगे। इस प्रकार चिन्ताकर, कि भागरहित एक मासमें इस यज्ञका उद्यापन किया जाता है, हो वह सेवा कर न सकेंगे अग्निने पहले की तरह फिर, यावज्जीवन भी इसका अनुष्ठान हो सकता है। पलायन न किया और वह प्रजापतिके मध्यमें प्रविष्ट यावज्जीवन यह याग करनेसे प्रत्यह प्रातःकाल और हुए। तब प्रजापति पुनः पुन: इस तरह कहने लगे, सायंकालमें होम करना आवश्यक है। अग्निहोत्र यज्ञ कि जन्म ग्रहण करो, जन्मगृहण करो। अग्निने का स्थ ल-स्थूल प्रकरण यों है, मूक, अन्ध, वधिर प्रजापतिके उदरसे कहा, कि वह भागरहित और पङ्ग के पक्ष में यह याग निषिद्ध है। विवाहके बाद होनेके कारण क्षुधित थे, इसलिये सेवा न कर ब्राह्मण वसन्तकाल, क्षत्रिय ग्रीष्मकाल और वैश्य सकते थे। अग्निके इस वाक्यको श्रवणकर प्रजापतिने शरत्कालमें विहित मन्त्र द्वारा अग्निस्थापन करें, पौछ यह कह अग्निको भाग दिया, कि वह अग्निहोत्र- होम होना उचित है। होमका उपकरण-दुग्ध, दधि, गत हविः उनके ही लिये थी। अग्नि भी अग्निहोत्र- यवागु, घृत, अन्न, तण्डुल, सोमरस, मांस, तैल और गत हविःको स्वभागस्वरूप देख ब्रह्माके उदरसे काला उड़द है। कलियुगमें सोमरस नहीं मिलता फिर उत्पन्न हुए। * और न कोई यही जानता, कि सोमलता क्या वस्तु है।

  • "सोऽग्निरविभेत् आहुतिभिवे तमाप्नोतीति स प्रजापति पुन: प्राविशत, त

इसलिये सुलभ द्रव्य द्वारा ही यज्ञानुडान हुआ करता प्रजापतिरब्रवीत् जायखे ति सोऽत्रवोत् किं भागधेयमभिजनिष्य इति तुभ्यमेवेदं है। प्रथम दिन जिस द्रव्यको ले यज्ञका संकल्प करने हयाता इत्यब्रवीत् स एतद्वागधेयमभ्यजायत। यदग्निहोत्रम् । तडू यमान- बठे, जीवनावधि उसी द्रव्य द्वारा ही होम करना मादित्योऽब्रवीत् मा होषी: । उभयो नाव तदिति सोऽग्निरब्रवोत् । कथं विहित है। अमावस्याको रात्रिमें यजमान आप ही नौ होष्यन्तौति । सायमेव तुभ्यं जुहवन् प्रातर्मह्यमित्यब्रवीत् । तस्मादग्रये