पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अग्न्यस्व-अग्न्यागार १३१ grant foison du feu qui getoit la grant “नालिक विविध जेयं वृहत् क्षुद्रविभेदतः ।१९५ clarte" सर वालटर स्काटने (Sir Walter Scott) तिर्यगूर्ध्वच्छिद्रमूल' नालं पञ्चवितस्तिकम् । अपनी उपन्यास-पुस्तकमें इसका इस तरह संक्षेपानु- मूलाग्रवोर्लक्षामदितिलविन्दुयुतं सदा ॥ १९६ बाद किया है-It came fiying through the यन्वाधाताग्निकद गावचूर्णकर्णमूलकम् । air, like a winged dragon, about the thick- सुवर्चिलवणात् पञ्चपलानि गन्धकात् पलम् । ness of a hogshead, with the report of अन्तर्धमविपक्वार्कसू द्याद्यङ्गारत: पलम् ॥ २०१ thunder and the speed of lightening, and शुद्धात् संग्राह्य संचूण्य सम्मोल्य प्रपुटेट्रसैः । the darkness of night was dispelled by स्त्र ह्यर्काणां रसोनस्य शोषयेदातपेन च । this horrible illumination' अर्थात् वह अग्न्यस्त्र पिष्ट्वा शर्करवञ्च तदनिचूर्ण भवेत् खलु ॥" २०२ । परदार अजगरकी तरह आकाशसे उडकर आ छोटे और बड़े आकार भेदसे नालिक दो प्रकारका पहुंचा। वह शराबके मटके जैसा मोटा, बिजली जैसा होता है। छोटे नालिकका छेद टेढ़ा, ऊपरकी ओर ज़ोरदार और वज़ जैसा गरजता था। उस भयानक को और ढाई हाथ लम्बा रहता है। उसके आगे-पौके ज्योतिःपुञ्ज अस्त्रसे रात्रिका अन्धकार मिट गया। निशाना लगानेको छोटी मक्खी होती है। यन्त्रको द्रोणाचार्यके मारे जानेपर अश्वत्थामाने नाराय- आघात करनेसे आग निकलनेके कारण पत्थरका चूर्ण णास्त्रको सृष्टि की थी, जिस दिव्य वाणका प्रभाव ठीक गिरानेके लिये रञ्जकका घर बना रहता है। वैसा ही था, जैसा ऊपर लिखा गया है। ४० तोला शोरा, ८ तोला गन्धक, और धीरे-धीरे "प्रादुश्चक्र ततो द्रोणिरत्र नारायणं तदा । जले हुए आकन्दका ८ तोले खालिस कोयला लेकर अभिसन्ध्याय पाण्डनां पाञ्चालानाञ्च वाहिनीम् ॥ १५ सब चीज़ोंको अलग-अलग कूटे, फिर उन्हें एक होमें प्रादरासंस्ततो वाणा दीप्तायाः खे सहस्रशः । राण्डवान् क्षपयिष्यन्तो दीप्तास्वा: पन्नगा इव ॥" १६ (महाभा० सौ-प०) मिला डाले। पीछे आकन्दके आटे और रसूनके रससे भावना दे । अन्तको हलको धूपमें सुखा सब चीनी- उसके बाद द्रोणपुत्रने पाण्डवों और पाञ्चालोंकी सैन्यको लक्ष्य कर नारायणास्त्रको सृष्टि की। उसी को तरह पीस डाले। यहो अग्निचूर्ण है। शुक्रनीति पुस्तककै चतुर्थाध्यायवाले सप्तम प्रकरणमें और भी अन्यान्य विवरण देखो। वाणने पाण्डवोंको क्षय करनेके लिये ज्वलन्तमुख फिर, बन्दूक और बारूद निकली। किन्तु महा- बृहत् सपको तरह आकाशमें सहस-सहस तेजःपुञ्ज भारतका नालिकास्त्र, मालूम होता है, कि बन्दूक वाण उत्पन्न कर दिये। नहीं, वह नलीके भीतर डाल मारनेका तौर या अवस्थामाके अग्न्यस्त्र और जैनविल-वर्णित यूना- बर्के जैसा कोई दूसरा अस्त्र था- नियोंको अग्निमें अनेक सादृश्य देख पड़ता है। इससे "क्षुराः क्षुरप्रनालिकावत्सदन्तास्थि सन्धयः।" द्रोणप० ३.१७॥ मालूम होता है, कि निःसन्देह उस कालमें किसी 'नालिका नलिकया क्षेप्या: । (नीलकण्ठ) प्रकारका भयानक अग्निवाण प्रचलित था। क्षुर, क्षुरप्र, नालिक, वत्सदन्त, स्थिसन्धि इत्यादि अग्निवाणके सम्बन्धमें अनुमान द्वारा जितना जो नलीसे छूटता, उसीको नालिक कहते हैं। अनु- सिद्धान्त किया जा सकता है, वह पूरा हो गया ; अब माम यही होता है, कि अन्यान्य फलकास्त्रका साह- प्रमाणको आवश्यकता है। संस्कृत शब्दों में श्लोक बना चर्य-हेतु नालिक भी एक फलकास्त्र है। कर कोई बात लिखनेसे यदि प्रामाणिक समझी जाये, महाभारतवाले द्रोणपर्वके ३०वें अध्यायमें मूल और टीका देखो। तो आर्योंके हाथको बनाई तोप-बन्दूकका बहुत अग्न्या (सं० स्त्री०) मादा तीतर। अच्छा प्रमाण मिलता है। शुक्रनीति पढ़नेसे मालूम अन्यागार (सं० क्लो०) अग्नेनिमित्तं प्रागारम्, ६-तत् । होता है- १ यज्ञीय अग्न्याधारकुण्ड। २ अग्निहोत्बका ग्रह।