पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१४०

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१३४ अग्रहोप-अग्रनासिका प्रकृत बात यह है, कि घोष महाशय ग्वाले नहीं, विषम समस्या में पड़ गये। उन्होंने अनेक चेष्टायें की, जातिके उत्तराढ़ीय कायस्थ और चैतन्यके जनेक किन्तु यह पहचान न सके, कि उनके गोपीनाथ कौन पार्षद थे । एक दिन आहारान्तमें चैतन्यने मुखशुद्धिको थे। दूसरो रातको गोपीनाथने उन्हें यह स्वप्न दिया,- करना चाहा था। घोष महाशय भीख मांग एक हर 'महाराज ! तुम घबराना नहीं। जिस मूर्तिके माथे ले आये। उन्होंने आधी तो प्रभुको उस दिन दी और पर तुम पसीना देखना, उसोको अपना विग्रह सम- बाको आधी दूसरे दिनके लिये रख छोड़ी। चैतन्यने झना।' प्रातःकालमें कृष्णचन्द्र राजाने नवकृष्ण देखा, कि घोष महाशयको उस समय तक स्पृहा बहादुरसे कहा, 'चलिये, आज मैं अपने गोपी- गई न थी। इसलिये उन्होंने विरक्त हो उनसे घर नाथको पहचान लूंगा।' यह कह कृष्णचन्द्र राजाने वापस जानेको कहा। घोष महाशयने रोते-रोते देवालयमें जाकर देखा, कि एक प्रतिमाके कपालमें कहा, 'मैं आपका पुत्रसे अधिक प्यारा था। बूंद-बूंद पसीना मानो अलकावलीसे सजाकर रखा घरमें आपको न देख मैं कैसे रह सकूगा?' गया था। यह देख प्रेमभरके कारण कृष्णचन्द्रको चैतन्यने कहा--'तुम कृष्णमूर्तिको स्थापन कर आँखोंसे आँसू फूट-फूट बहने लगे । उन्होंने यह कह उसके प्रति वात्सल्यभाव दिखाना, इससे तुम्हारा जल्द-जल्द विग्रहको गोदमें उठा लिया, कि हां, वही मनस्ताप दूर हो जायेगा।' इसी उपदेशानुसारसे उनके गोपीनाथ थे। अग्रदीपमें यह गोपीनाथ प्रतिष्ठित हुए हैं। घोष कोई-कोई कहते हैं, कि राजा कृष्णचन्द्रने गोपी- महाशयका प्रकृत नाम वासुदेव और निवास अग्रहोप नाथके लिये गवरनर-जनरलके पास नालिश को थी। के निकट कुलिया ग्राम था। उन्होंने ठाकुर वापस देने के लिये राजा नवकृष्ण बहादुर- गोपीनाथको प्रतिमूर्ति कोई डेढ़ हाथ ऊंची से अनुरोध किया। पहले अग्रदीप पाटुलीके ज़मीन्दारों- होगी। इसकी बनावट बहुत ही अच्छी है। नवदीपक को सम्पत्ति था। पीछेको एक बार पांच-छ: यात्री राजाओं ने इस विग्रहको सेवाके लिये विस्तर भूमिको | वहांके मेले में मर गये। मुर्शिदाबादके नवाबने इससे दान किया है और दोलोपलक्षमें वह बड़ी धूमधाम क्रुद्ध हो वहांके जमीन्दारोंको शास्ति देनेका सङ्कल्प करते हैं। कहते हैं, कि राजा नवकृष्ण गोपी किया। इसी भयसे सब जमीन्दारोंके मुखतारोंने कहा, नाथको एक बार कलकत्ते ले आये थे, जहां उन्होंने कि अग्रहोप उनके प्रभुका न था। कृष्णनगरके मुख़्तार गोपीनाथ ही जैसी एक दूसरी मूर्तिको निर्माण सुयोग देख बोल उठे,–'धमावतार! यह सम्पत्ति कराया। उधर कृष्णचन्द्र राजाने ठाकुरके शोकसे हमारे प्रभुकी है। मेलेमें जैसा लोगोंका समागम अत्यन्त कातर हो अन्नजलको बिलकुल त्याग किया। होता, उससे और भी अनिष्ट होनेकी बात है। किन्तु इसके बाद गोपीनाथने स्वप्नयोगसे यह प्रत्यादेश दिया, हमारे प्रभुको विशेष सतर्कतासे वैसा होने नहीं 'तुम कलकत्ते आओ, मैं राजा नवकृष्णके घरमें बैठा पाता। नवाबने यह बात सुन दोषको क्षमा कर है।' कृष्णचन्द्र राजाने ठाकुर वापस देनेके लिये नव दिया और अग्रहोप अबाध-रूपसे कृष्णनगरको सम्पत्ति कृष्ण बहादुरसे अनेक साध्यसाधना की। राजा नव- कृष्णने कहा,-'अच्छा, तो हमारे देवालयमें आप अग्रधान्य (सं० लो०) १ धान्यविशेष, वह अब जो आइये और अपने गोपीनाथको पहचानके ले जाइये। पहले उत्पन्न हो। २ बाजरा। इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है।' राजा कृष्णचन्द्रने अग्रनख (सं० पु०) अग्रो नखः, कर्मधा० । नखाग्र, देवालयमें जाकर देखा-गोपीनाथ तो हैं, किन्तु दो नाखूनका अगुआ। मूर्ति । दोनो मूर्ति एक ही जैसी थीं, वेशभूषा और अग्रनासिका (सं० स्त्रो०) अग्रा नासिका, कर्मधा। आकार-प्रकारमें कोई भेद देख न पड़ता था। वह नासिकाका अग्रभाग, नाकका अगला हिस्सा । हो गया।