पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१४२

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अग्रसन्ध्या-अग्रहार 1 अगसध्या (स० स्त्री०) सन्ध्यायाः अग्रं अथवा अग्रा महाजनोंसे अन्न उधार लेकर खाते और पीछे अपने सन्ध्या। १ सन्ध्याका पूर्वकाल। २ प्रातःसन्ध्या, घरमें अन्न होनेसे उसे व्याजके साथ चुका देते रहे। सवेरा, तड़का। महौना, सन् या तारीख बतानेसे अज्ञ लोग इसका कुछ अग्रमर (सं० त्रि०) अग्र-स-ट, अग्रं अग्रेण अग्रे वा सर भौ मतलब समझ न सकते, कि किस समय महाजन तौति । अग्रगामी, आगे चलने वाला। अग्रतःसर देखो। ऋण देते थे और किस समय वह ऋण परिशोध अग्र सानु (सु. पु०) उभरी हुई भूमिका सम्मु खस्थ करना होता था। इसलिये स्वभावका एक-एक लक्षण भाग। दिखा महाजन उन्हें सब बातें बता देते थे। पाणिनिके अग्रसारा (स. स्त्री०) अग्रं शीर्षभागमात्र सारोऽस्याः । कई एक सूत्रोंमें इस बातका प्रमाण मिलता है। १ फलशून्य शिखा, बिना मेवेको चोटी। २ मञ्जरी, जसे-"देयमणे" ४।३।४७। “कलाप्यश्वत्थयवबुसावुन् ।” ४।३।४८ । बाल। “ग्रीमावरसमावुञ् । ४।३।४६ । अग्रसेन (सं० पु०) जन्म जयके एक पुत्र । 'यस्मिन् काले मयुराः कलापिनो भवन्ति स उपचारात् कलापौ, तत्र अग्रह (सं० पु०) न-ग्रह: दारपरिग्रहः, नञ्-तत् । १ देयमणं कलापकम्। यस्मिन्कालेऽवत्याः फलन्ति तत्र देयमृणमश्वत्थकम् । जिमने विवाह न किया हो। २ सन्यासी। ३ वानप्रस्थ। यस्मिन् यवबुसमुत्पद्यते तत्र देयं यववुस कम् । ग्रीभ देयमणं ग्रेमकम् ।' (भट्टोजि) अग्रहर (सं० त्रि०) अग्र-ह-अच् । अग्रदेय वस्तु, आगे दिये जाने काबिल चीज़ । अग्रभागहारी। जिस समयमें मयूर पर फैलाकर नाचते हैं, उसी अग्रहस्त (स० पु०) अग्रश्चासौ हस्तश्चेति, कर्माधा। समय दिये जानेवाले ऋणका नाम कलापक है। गुणगुणिनोरभेदात्। १ हस्तका अग्रभाग, हथका अश्वत्थ वृक्ष फलनेके समय चुकाया जानेवाला ऋण अगला हिस्सा । २ हाथोकी सूड़वालो नोक । अश्वस्थक होता है। जिस समय यवका शोष अग्रहायण (स० पु०) हायनस्य वत्सरस्य अग्रं प्रथम निकलता, उस समयके देय ऋणको यववुसक कहते मासः, अग्र-हा-ल्यु ट हायन । हयद्रौहिकालयोः । पा ॥१॥१४८ । हैं। जो ऋण ग्रीष्मकालमें दिया जाता, वह गृष्मक मार्गशीर्ष मास, मगसर, अगहन। पहले अग्रहायण कहाता है। वर्षासे पहले दिया जानेवाला ऋण माससे वत्सर आरम्भ और कार्तिक मासमें समाप्त आवरसमक नामसे अभिहित है। स्वभाववाले होता था। इसीलिये मार्गशीर्ष मासका नाम अग्र एक-एक सहज लक्षणके साथ देय ऋणके इतने हायण पड़ा, अमरादि प्राचीन कोषमें यह बात स्पष्ट सम्पर्क रहनेका क्या प्रयोजन था? यदि उधार रूपसे निर्दिष्ट है। इसका कारण वर्तमान है, कि लेनेवालोंको महीने, सन् और तारीख़से उस समयके पहिले अग्रहायण माससे क्यों वत्सर-गणना की जाती निश्चित करने की क्षमता होती, कि वह किस थौ । मालूम होता है, कि वह कारण अमूलक नहीं। समय ऋण लेते और कितने दिन पीछे उस ऋणको साधारण लोग चन्द्र, सूर्यको गति देख वत्सर-गणना परिशोध करना होता, तो इतना मोटा हिसाब कर न सकते थे। चन्द्रसूर्यको गति देख वत्सर कभी न चलता। गणना करना एक कठिन कार्य है। इसलिये वह अग्रहायणेष्टि (सं० स्त्री०) अग्रहायणे विहिता इष्टिः । स्वभावका सामान्य लक्षण देख साधारण रौतिसे नवशस्यका यागविशेष, वह खास यज्ञ जो नये अनाजसे वत्सरको निर्णय करते रहे। 'अग्रहायण'–अर्थात् किया जाता है। जिस समयमें श्रेष्ठ व्रीहि (अग्रः श्रेष्ठः हायनः ब्रीहिः अग्रहार (स० पु०) अग्र-ह-घञ् कर्मणि, अग्र-हृ-अण् । अस्मिन् काले) हो। इससे स्पष्ट समझा जाता है, १ ब्राह्मणको देनेके लिये क्षेत्रोत्पन्न शस्यादिका अग्र- कि सामान्य लोग व्रीहिको उत्पत्ति देख वत्सर भाग, खेतमें पैदा हुए अनाजका वह पहला हिस्सा, गिनते थे। आजकलको तरह उस समय भी लोग जो ब्राह्मणको देनेके लिये रखा जाये। सातकको देय -