पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१४६

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१४० अघोष-अङ्क जिस तरह माला या अन्यान्य विशेष परिच्छद वर्गके प्रथम और द्वितीय वर्ण खय् (कख, चछ, रखते हैं, अघोरियोंके पास उस तरह कुछ भी नहीं टठ, तथ, पफ) कहाते हैं। जिह्वामूलीय, उप- होता। धर्मकथा सुननको इच्छा करनेसे यह कुछ भी ध्मानीय, विसर्ग और शषस, यह सब यम हैं। यही नहीं कहते । बड़ोदा राज्यमें अघोरेश्वर नामक इनका समस्त वर्ण विवार, श्वास और अघोष बोले जाते हैं। एक मठ था। अघोरखामी उसी स्थानमें वास करते जिह्वामूलीय और उपध्यानीय अर्द्ध विसर्ग हैं। यह थे । आजकल यह सम्प दाय क्रमशः निर्मूल होते चला सकल उच्चारण किसीके मुखसे न सुनने पर ठीक जाता है। कहीं पर कभी-कभी अघोरपन्थी योगी इत बोधगम्य नहीं हो सकता। स्ततः घूमते-घामते देख पड़ते हैं। अघौघ (सं० पु०) पापोंका ढेर, पापसमूह । अघोरपन्थिकोंका मत नूतन नहीं। इसका प्रमाण अघौघमर्षण (स० त्रि०) सम्पर्ण पापनाशक, सब पाप भी मिलता है, कि अति प्राचीनकालमें यह सम्प्र- दूर करनेवाला। दाय विद्यमान था । मार्कोपलो, प्लिनी, आरिष्टटल अघ्नत् (स. त्रि.) न मारनेवाला, चोट न पहुंचाने प्रभृति विदेशीय पण्डितोंने इसके विषयको कुछ-कुछ वाला। उल्लेख किया है। ईरान देशमें भी बहुत पुराने समय अघ्नर (स० पु०) हन्-यक् । अन्नपादयश्च । यगन्ता निपात्यन्ते । इसी प्रकार एक सम्प्रदायक साधक वास करते थे। हन्त थक् अडागमः उपधालोपय। उण ७।१११ । १ प्रजापति, इसलिये अनुमान होता है, कि अघोरी शैव देश- ब्रह्मा। २ वृषभ, बैल। (स्त्री०) ३ गो, गाय। ४ विदेशमें विस्तीर्ण हो गये थे। कभी-कभी हिन्दुस्थानमें बादल, घटा। (त्रि०) ५ वधके अयोग्य, न मारनेके स्थान-स्थान पर अघोरिने दलबद्ध हो कर जाती हैं। काबिल। इनके शिरपर जटा रहती, गले में नानाविध प्रस्तर अघ्रान (सं० आघ्राण) आवाण देखो। और स्फटिकको माला झूमती, कमर पर घांघरा अघ्रानना (हिं• क्रि०) सूंघना, खुशबू लेना। लटकता और किसीके हाथमें त्रिशूल दिखाई देता है। अघ्रय (सत्रि०) न घ्रातु अर्हः। दुर्गन्धि द्रव्य। सूधने- यह जनपदमें महा उपद्रव मचाती हैं। के अयोग्य, बदबूदार । (क्लो०) मदिरा, शराब। अघोष (सं० पु०) नास्ति घोषोऽत्र । वर्णोच्चारणार्थ प्रयत्न अङ्क (स० पु०) अङ्ग-अच्। १ चिन्ह ; जैसे–पदाङ्ग । विशेष । तुल्यास्वप्रयत्न' सवर्णम् । पा १।१६। ताल्वादिके समान मृगाङ्क। २ नाटकका एक परिच्छेद जिसमें यवनिका स्थान और समान आभ्यन्तर प्रयत्नसे जो सकल वर्ण गिरादी जाती है। ३ गोद। ४ समीप ; जैसे-'श्रद्धका- उच्चारित होंगे, उनको सवर्ण संज्ञा दी जायेगी। इसके गत सत्ववृत्तिः। रघु २।३८ । 'अडासमीप उत्सही चिह्न स्थानापराधयो:' बाद (प्रथबो बिधा:) प्रयत्न दो प्रकार है, आभ्यन्तर और इति केशवः । ५ स्थान। ६ अपराध । ७ पर्वत । वाह्य। फिर आभ्यन्तर प्रयत्न पांच प्रकारका है युद्धभूषण। ८ देह। १० एकसे नौ तक संख्या- १ स्पष्ट, २ ईषत्स्पृष्ट, ३ ईषद्दिवत, ४ विकृत, और १, २, ३, ४, ५, ६,७,८,८।११ पाप । १२ दुःख । ५ संवृत । वाह्यप्रयत्न ग्यारह प्रकारका होता है : जैसे; १३ वार। अङ्क शब्दका ही अपभ्रश आंक है। १ विवार, २ संवार, ३ श्वास, ४ नाद, ५ घोष, यह आश्चर्यका विषय है, कि सभी सभ्य जातियों- ६ अघोष, ७ अल्पप्राण, ८ महाप्राण, ८ उदात्त, १० ने मूल रूढ़ संख्या एकसे नौ तक ली है। शून्य (०) अनुदात्त और ११ स्वरित। एक अलग अङ्क है ; वह कोई संख्या नहीं। एक-एक शून्यको सहायतासे सभी एक, दो अङ्गोंको दशगुण "खयां यमाः खयः+क-पौ विसर्ग: शर एव च । एते श्वासानुप्रदाना अघोषाय विवण्वते । संख्या बढ़ाते हैं। इसका ठीक-ठीक कारण समझमें तव वर्गाणां प्रथमहितीयाः खयस्तथा, तेषामेव यमाः जिह्वामूलीयोपध्मानीयौ, नहीं आता, कि यह प्रथा सबदेशोंमें क्यों प्रचलित हुई। “विसर्ग: शवसायेत्येषां विवारश्वासोऽघोषय ।" पाश्चात्य पण्डित अनुमान करते हैं, कि मनुष्य असभ्य ८