पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१६३

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छिपा। । अङ्गामी-नागा १५७ नागाओंका कथन है,–'पहले पृथ्वी बड़े ही सुखका थी। इस लिये वह फिर अपनी भतीजोको लेकर स्थान थी। उस समय इतने मनुष्य न थे, परस्परमें पासके किसी पर्वतमें जा कछारके इतना लड़ाई-झगड़ा भी न होता था। एक देवता, लोग कहते हैं, कि अङ्गामी-नागा उन्हीं दानोकी एक मनुष्य, उसकी स्त्री और एक बाघ यह चारो सन्तान हैं। एकत्र वास करते थे। समय पाकर उसी दम्पतीको नागा-पर्वत कोई बारह हजार फुट ऊंचा दो सन्तान हुई। उन दोनो भाइयोंमें भी बड़ा है। यहां न अधिक जाड़ा ही रहता है और न स्नेह रहा। मनुष्य चिरकाल जोते नहीं रहता; विशेष गर्मों ही। इस लिये यहांका जल-वायु कुछ दिन बाद वह स्त्री मर गई। मृत देह देख बड़ा ही सुखकर है । यहां जल्द कोई रोग नहीं बाघ अपनी रक्त-पिपासाको रोक न सका। वह लगता, लोग आनन्दसे अपने दिन बिताते हैं। भूमि उसके कलेजे पर चढ़कर मांस खाने लगा। पहले शस्यसे भरी है, मानो लक्ष्मीदेवो बारह महीने यहीं जगत्में हिंसा न थो, उसी दिनसे हिंसाका आरम्भ बैठे हंसा करती हैं। नाना प्रकारका धान, मटर, और सुखके संसारका लोप हुआ। फिर उन दोनो भुट्टा, गेहूं, मिर्च, आलू, लहसुन, प्याज, अदरक, भाइयों में भी झगड़ा उठा। इससे एक चेमू वनको कद्द, कुम्हड़ा आदि द्रव्य यहांको प्रधान फसल है। ओर और दूसरा चर् वनको ओर चला गया। उन नागा पहाड़के ऊंचे स्थानोमें घर बनाकर रहते बड़े भाईको सन्तान अब भी गोरी है, परन्तु हैं। एक स्थानके लोग अधिक दूसरे स्थानके छोटेके लड़के काले पड़ गये हैं।' दूसरी भी एक लोगोंके साथ सहसा मिलना नहीं चाहते, इससे कहानी है। बात बिना बनाये अच्छी नहीं इनके अनेक सम्प्रदाय हैं। इनमें बल, बुद्धि तथा लगती। इसीसे यह कहानी भी खूब रंग दौ सभ्यताको देखते अङ्गामी ही सबसे श्रेष्ठ हैं। इनमें गई है। नागा कहते हैं,-'एकबार एक छोटी नाव भी फिर दो श्रेणी हैं-पश्चिम अङ्गामी और पूर्व बहते-बहते पर्वतके नीचे आकर लगी। अङ्गामी। पहाड़ी लोग प्रायः खर्व होते हैं, परन्तु नाव पर एक सफेद कुत्ता और एक रूपवती अङ्गामियोंके शरीरको गठन खूब परिमित है। बालिका थो; दूसरा कोई आरोही नहीं। यहांके बदनका रङ्ग यद्यपि गुलाबी नहीं होता, तथापि बुरा गोर नागा उनको हो सन्तान-सन्तति हैं।' मोटौ नहीं है। इनका रङ्ग गोरा होता और चेहरेपर श्री बात यह है, कि नागाओंका पूर्व इतिहास कुछ झलका करती है। स्त्रियां रूपवती हैं। मुहपर भी नहीं, इसीसे वह इस तरहको कहानियां सदा कुछ हंसी बनी रहती है ; परन्तु यह जङ्गली कहा करते हैं। नागा देखो। स्त्रियां हो तो ठहरी,—इनके पास अच्छे वसन-भूषण बहुत दिनकी बात नहीं, लगभग तीन सौ नहीं ; देहका पारिपाट्य भी नहीं। सुश्री कहांतक वर्ष हुए, जयन्ती-पुर महाराजका सहोदर अपनी होंगी ! जो हो, यह सुन्दरी अवश्य हैं। विशेषतः भतीजीको लेकर दीमापुर चला गया था। स्त्रियाका प्रधान सौन्दर्य जो पतिपरायणता है, अङ्गामी समय दीमापुर कछारको राजधानी रहा। दीमा रमणियों में उसका गर्व सब जातियोंसे अधिक दिखाई पुरके राजाने उस दुष्टको अपने यहां आश्रय दिया। देता है। कष्टका एक-एक दिन वर्षको बराबर बीतता है, नागा जाति विलक्षण, साहसी, रणनिपुण, पापीका चित्त ठिकाने नहीं रहता; कभौ भय, कभी सच्चरित्र और सत्यवादी है। यदि इसमें सन्द ह और कभी सोच विचारमें वह डूब जाता है। दोष है, तो इतना हो, कि यह सदा आपसमें दुष्टने मनमें जो शङ्का को थी, अन्तमें बही बात लड़ा-भिड़ा करती है। विवादके समय किसीको हुई-जयन्तीपुर-महाराजको सेना उसे पकड़ने पहुं यह नहीं छोड़ती। शत्रु बालक, वृद्ध और उस उस ४०