पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१७८

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अङ्गु लि १७१ । इस ओर हाथ घुमानेमें इतना जोर नहीं लगता। कुहनीके पास स्थिति- स्थापक मांसपेशी रहती है। जैसे, क और है। इस पेशीके द्वारा हाथ चित और पट किया जाता है। मनुष्य भिन्न अन्य कोई जन्तु इसतरह हाथ उलट-पलट नहीं सकता। वानर कितना ही ऐसा कर सकते हैं, किन्तु मनुष्बकी भांति नहीं। गो, मेष प्रभृति अन्यान्य जन्तुकै पैरवाल इसी स्थानकी बनावट ठीक मनुष्यको कुहनी-ज सी होती है, किन्तु उनके पैर स्वभावत: पट बने रहते हैं, इच्छा होनेसे वह उन्हें चित नहीं कर सकते। हम इच्छा करते ही अङ्गलि अलग कर, एकमें मिला और मुट्ठी बांध सकते हैं। यह सब काम भी मांसपेशीकै हारा साधित होते हैं। हाथके ऊपर तीन स्थिति-स्थापक मांसपेशी हैं। इनमें एक (Radial filexure) बाहरी वृद्धाङ्गको और आई है । दूसरी (Ulnar flexure) कनिष्ठा अङ्ग लिकी ओर चली है। तीसरी हथेलौकी और दौड़ती है। इन सकल मांसपेशी हारा हम हाथको कुहनी और पहुचा फैला और सिकोड़ सकते हैं। ऊपरवाली बडी-बड़ी मांसपेशीको शाखा और प्रशाखा अङ्गलिमे आ मिली हैं, इनके द्वारा अङ्ग लि भौ फैलाई :सिकोड़ी जा सकती है [ अङ्ग लिकी पेशे शिरा और नाड़ी प्रभृतिका चित्र हस्त शब्दमें देखो ] । क-चिह्नित चिवमें अङ्गलिका पेशी-सूब आवरणसे ढका है ( Sheath of flexure tendons )। अङ्गलिमें कितनी ही नाड़ी हैं। हाथको प्रधान रक्तवहा नाड़ी (Brachial) बाहुके मध्यस्थलसे आकर कुहनौके नीचे दो बड़ी-बड़ी शाखामें विभक्त हुई है। इसकी एक शाखा ( Radial artery) हाथके ऊपर से बृद्धाङ्गुष्ठको ओर चली गई है। पौड़ाके समय मणिबन्धमें इसी नाडीको हम परीक्षा करते हैं। फिर एक शाखा ( Ulnar artery) हाथके नीचेसे कनिष्ठा अङ्गुलिको ओर आई है। बृद्धाङ्गुष्ठ और कनिष्ठा अङ्गलिके पाससे यह दोनो धमनी अड़चन्द्राकारमें ( Palmar arch ) गोल बन गई हैं। इनमें अंगूठेके दिक्की नाड़ी मांस भेदी है, हाथके तलमें पेशीसे कितना ही नीचे डूबी पड़ी है। उंगलि- योंके दिक्की नाड़ी हाथके तलमें ऊपर-ऊपर आई है, मांसके अधिक भीतर नहीं धंसी। इन दोनो धमनीके गोल घेरेसे पतली-पतली शाखा नाड़ी निकल अङ्गलिको ओर चली आई हैं। हाथके ऊपरी पृष्ठसे भी इन दोनो बड़ी धमनीको शाखा अङ्गलिकी ओर गई हैं। प्रत्येक अङ्गलिक दोनो पार्श्व में नाड़ी है, इसौसे अस्त्र-प्रयोगके समय दोनो पार्ख बचा स्फोट- कादि चीरना पड़ते हैं। अङ्गुलिको शिरा (Veins) भी अनेक हैं। हाथको दो प्रधान शिरा हैं। एक बाहुसे ऊपर चली आई है। फिर एक शिरा बाहुके नीचेसे गई, जो अत्यन्त गभीर है। इन दो प्रधान शिराको शाखा- प्रशाखा अङ्गलिमें जड़ गई हैं। वायु शब्दमे देखो, कि अङ्क लि द्वारा किस प्रकार स्पर्शज्ञान उत्पन्न होता है। अङ्गुलिके अग्रभागमें नख है। नख अस्थिसे नहीं निकलता, इसकी उत्पत्ति चर्मसे होती है। नखके मूलमें सछिद्र मोम-जैसा एक प्रकारका मांस होता, जिससे यह बढ़ा करता है। नख सींग-जैसा पदार्थ है, इसका प्रधान उपादान अङ्गार और गन्धक होता है। अङ्गलिरोग-अङ्गुलिको पौड़ाके मध्यमें बिसहरी ही सचराचर हुआ करती है। अङ्गलिका अग्रभाग सूज जाता, जो रह-रह तपका करता है। यन्त्रणासे रोगी तिलाई काल सुस्थिर नहीं रह सकता। रातको निद्रा नहीं आती। बिसहरी रोग नितान्त सहज नहीं। पहलेसे अच्छी तरह चिकित्सा न होनेपर भीतरकी अस्थि पर्यन्त गलकर निकल पड़ती और चिर- कालको तरह अङ्गुलि छोटी और विकृत हो जाती है। चिकित्सा-पौड़ाका थोड़ासा सूत्रपात देखकर कदाच कालक्षय न करना चाहिये। प्रथमावस्थासे ही भली भांति चिकित्सा करना कर्तव्य है। इस देशमें बिसहरीके अनेक प्रकार मुष्टियोग हैं। सेमरको कच्ची डालवाली लकड़ी निकाल उसी गड्ढे में अङ्गुलि बन्द करके रखनेसे उपकार होता है। सहिजनका आटा, मोचरस प्रभृति अनेक प्रकार ट्रव्यको कितने ही व्यवस्था करते हैं। मोटी बात यह है, कि अतिरिक्त प्रदाह होनेसे इसमें अवश्य पोब उत्पन्न होती, किसी औषधसे वह निवारण को नहीं जाती। ऐसे समय अस्त्र-प्रयोग ही एकमात्र उपाय है। होमिओपेथी-पौड़ाके प्रथम हो गर्म पानीसे नमक घोल उसमें पुनः-पुनः हाथ डुबाता रहे। सेवनके लिये चकमक पत्थरका अर्क (silicen) महौषध है। इसके १२ डाई•को तीन घण्टे अन्तरसे सेवन करे।