पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१८४

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फिर आभ्यन्तर

अच १७७ है, आभ्यन्तर अर्थात् मुखका, और वाह्य अर्थात् | वर्ण स्वर हैं। क और खकी तरह ककार और मुखसे बाहर या कण्ठादिका। खकारके पूर्व अर्द्ध विसर्गका चिह्न जिह्वामूलीय है। प्रयत्नके पांच भेद हैं। यथा, स्पृष्ट, ईषत्स्पृष्ट, प और फकी तरह पकार और फकारके पूर्व ईषद्विवृत, विवृत और संवृत। जो वर्ण उच्चारण जो अर्द्ध विसर्गका चिक रहता, वह उपध्मानीय करनेमें जिह्वाके स्थानको स्पर्श नहीं करता, उसे स्पृष्ट कहाता है। प्रयत्न कहते हैं। स्पर्श वर्ण में स्पृष्ट प्रयत्न होता है। विशुद्ध स्वरसे वेदको गान करने के लिये यह सकल अन्तस्थ वर्ण का ईषत्स्पृष्ट अर्थात् किञ्चित् स्पृष्ट प्रयत्न स्वरभेद बहुत ही आवश्यक है। इससे स्पष्ट जान उष्म वर्ण का ईशवित प्रयत्न बताया गया है। पड़ता, कि सङ्गीतविद्याकी उन्नतिके साथ नाना अच् अर्थात् स्वरवर्ण का विवृत प्रयत्न है; वर्ण प्रकार उच्चारणको सृष्टि हुई है। यही भिन्न-भिन्न उच्चारित होनेमें जिह्वाके स्थानको स्पर्श न करनेसे, उच्चारण सहजमें समझा जा सकने के लिये कहीं एक- विवृत प्रयत्न कहाता है। प्रयोग अर्थात् बोलने एक अक्षर या शब्दके ऊपर एक-एक प्रकार चिह्न चालनेमें हस्व अकारका संवृत प्रयत्न माना गया है। दिया गया और कहीं एक-एक वर्णको सृष्टि की किन्तु प्रक्रियाकी दशामें अर्थात् किसी विधि द्वारा गई है। जहां अकार किया जाता, वहां इसे विवृत प्रयत्न कहते प्रथम-प्रथम अच्वर्णके मध्यमें एकमात्र आकार हैं। ऐसा न करनेसे अकारको सवर्ण सज्ञा फिर था, इसके बाद आकारसे अन्यान्य स्वरोंकी उत्पत्ति किसी प्रकार हो नहीं सकती। यह सकल भेद हुई। कार्यकारण भावको विचारकर देखनेसे यह ले गणना करनेसे वाह्य प्रयत्न ग्यारह प्रकारका बात समझमें आ सकती है। वृक्ष महोसे उत्पन्न होता है। यथा-१ विवार, २ सवार, ३ खास, होनेके कारण लकड़ी सड़नेपर मट्टो हो जाती है। ४ नाद, ५ घोष, ६ अघोष, ७ अल्पप्राण, ८ महा यदि वह मट्टीसे न उत्पन्न होते, तो लकड़ी भौ प्राण, ८ उदात्त, १० अनुदात्त, ११ स्वरित । खर सड़कर मट्टीमें न मिलती। वर्णमालाके वौँका प्रत्याहारके मध्यमें जितने वर्ण हैं (ख, फ, छ, ठ, थ, च, ट, भी इसी प्रकार नियम देख पड़ता है। नकार और त, क, प, श, ष, स, ), उनका विराव, खास और अघोष मकार इन दोनो वर्गों के स्थानमें अनुस्वार और प्रयत्न है। हश प्रत्याहारके मध्यमें जितने वर्ण अनुस्वारके स्थानमें नकार और मकार दोनो ही (ह य व र ल ज म ङ ण न म भ घ द ध ज ब ग ड द)। हैं, उनका होते हैं। इसीतरह रकार और सकारके स्थानमें सराव, नाद एवं घोष प्रयत्न है। वर्णमालामें विसर्ग और विसर्गके स्थानमें रकार और सकार प्रत्येक वर्गके प्रथम, तृतीय और पञ्चम वर्ण (क च ट त प, होता है। इसलिये नकार और मकारके साथ गज ड द ब, ङ अ ण न म) और यण प्रत्याहारके मध्यमें अनुस्वार एवं रेफ और सकारके साथ विसर्गका जितने वर्ण ( य र ल व ) हैं, उन सबका अल्पप्राण प्रयत्न घनिष्ठ सम्बन्ध मानना पड़ेगा। ऐसा ही आकारके कहलाता है। प्रत्येक वर्गका द्वितीय और चतुर्थ साथ इकार और उकारका भौ सम्बन्ध है। संस्कृत अक्षर महाप्राण प्रयत्न है। अल्पप्राण और महाप्राण प्रयवका शब्दोंके अनेक अकारान्त वर्ण, हिन्दी और प्राकृत फल, रस और अनुप्रास शब्दमें देखो। ककारसे मकार पर्यन्त भाषामें आकारान्त, इकारान्त और उकारान्त हो यावतीय वर्णों को स्पर्श वर्ण कहते हैं। यण प्रत्या- जाते हैं। यथा,-अङ्क-आंकड़ा ; चर्म-चमड़ा; हारके वर्ण अन्तस्थ होते हैं; क्यों कि वर्णमालाके गर्दभ-गधा। इसी तरह अनेक स्थलोंमें अकारके स्पर्श और उष्मवर्ण के मध्यमें उन्हें स्थान दिया गया स्थानमें आकार होता है। जैसे,-सज्ञान-सयाना। है। शल् प्रत्याहारके भौतर जितने वर्ण (श ष स ह) हैं, शब्द शास्त्रको आलोचना करनेसे स्पष्ट जान पड़ता उन्हें उमवर्ण कहा जाता है। अच् प्रत्याहारके है, कि केवल कण्ठके स्वरवैषम्य द्वारा आकारसे ४५