पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१९४

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१८७ होनेपर दुग्धाभावके कारण वह सबल नहीं होने करते हैं। पथ दुर्गम है। पर्वतके ऊपर सङ्कीर्ण पातीं। अधिक सन्तान होने पर कई जगह स्थान होकर कभी चढ़ना और कभी उतरना पड़ता एकाध बच्चा मर जाता है। बकरीका दूध सहजमें है। उस जगह दूसरा कोई पशु यातायात कर परिपाक होता, जिसके कारण रुग्णव्यक्तिको बहुत नहीं सकता। इसौसे भूटानवासी बकरीको पौठपर ही सुपथ्य और लाभदायक है ; विशेषतः कासरोगोके पण्यद्रव्य लादकर अनायास ही उस दुर्गमपथसे पक्षमें यह बहुत हितकर है। वैद्यक ग्रन्थोंके गमनागमन करते हैं। मतसे बकरीका दूध मधुर, शीतल और धारक होता बकरियां प्रायः सकल प्रकार उद्भिद् खाती हैं। है। इसे पीनसे क्षुधाको वृद्धि होती, रक्तपित्त इनका अखाद्य कुछ भी देख नहीं पड़ता। और क्षयकास नष्ट हो जाता है। बकरी कटु और कटीला पेड़ चबाते भी इन्हें कोई कष्ट नहीं। किन्तु तिक्त द्रव्य खातो और सदा घूमती फिरती है। इस नवीन मञ्जरी और नूतन तृणपर ही इनकी कुछ लिये इसके दुग्ध-सेवनसे सकल दोष नष्ट होते हैं। अधिक रुचि होती है। यह प्रायः जल नहीं पीतीं। प्रसवसे दश दिन पौछे बकरौका दूध पौनेको व्यवस्था शरोरमें जल लगनेसे भी इन्हें अतिशय कष्ट मालूम लिखी है- होता है, इसीसे यह वृष्टिके समय घरसे बाहर नहीं "अजागावीमहिष्यय ब्राह्मणी च प्रसूतिका। निकलतीं। शरोरमें अधिक जलस्पर्श होनेसे कभी- शुष्यन्ति दिवसेरेव दशभिर्नाव संशयः ॥ (स्मृति ) कभी इनके एक प्रकार रोग उत्पन्न हो जाता है। कितनी ही बकरियोंके गलमें स्तन जैसा मांस इस रोगसे सर्वाङ्गके लोम भर पड़ते हैं। गृहपालित पिण्ड निकल आता है। यह स्तन निरर्थक है, बकरियां कितनी हो निरोह होती, किन्तु बड़े-बड़े इसमें दूध नहीं होता। इसीसे नीतिशास्त्रकारोंने एक मस्त बकरे बहुत उपद्रव करते हैं। स्त्रियों और उपमा देकर निर्गुण पुरुषको इस तरह निन्दा की है बालक-बालिकाओंको इनको ठोकर खा धराशायी "धर्मार्थकाममोक्षाणां यम्बकोऽपि न विद्यते । होना पड़ता है। हाथमें खाद्य द्रव्य देखते हो यह अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम् ॥" छीनकर खा जाते हैं। मेंढ़ेके साथ लड़ाई होनेसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इस चतुर्वर्गमें जिसके बकरा प्रायः जयो होता है। फिर भी, दोषको एक भी नहों, उस व्यक्तिका जन्म बकरीके गलेवाले बात यही है, कि ठोकर मारते समय मेंढ़ा शिर स्तनको तरह निरर्थक है। नौचेको भुका छूटा चला आता, किन्तु बकरा शिर बकरीके खुरका अग्रभाग नुकीला और तीखा होता, उठा ठोकर मारता है। इससे सावधान न हो इसलिये थोड़ोसो सुविधा पानसे उच्च प्राचौर और सकते मेंढ़ेको ठोकर बकरेको छाती या इसके टुर्गम पर्वतके ऊपर यह चढ़ सकती है। दैवात् पेटमें लगती है। बकरियां खेलते समय परस्पर कभी उच्च स्थानसे पैर फिसल पड़नेपर यह भूमिको मार-पीट मचाती हैं। सामनेके दोनो पैर उठा, ओर मस्तक झुका देती है, इसीसे समस्त भार शृङ्गके गर्दन और शिर कुछ वक्र बना वह ऐसा भाव ऊपर पड़ता और भूमिपर गिरनेसे इसके शरीर में दिखातो हैं, मानो उसी ठोकरमें ब्रह्माण्ड फटकर दो अधिक आघात नहीं लगता। कोई-कोई इतर टुकड़े हो जायेगा। किन्तु इनका आडम्बर मात्र जाति, लोगोंके दरवाजे बकरी और बन्दर नचाते सार है, आघात करते समय दोनो केवल शृङ्ग-शृङ्गपर घूमा करते हैं। बकरौके खुरका अग्रभाग नुकीला हलकी ठोकर लगाती हैं। इसौसे उद्भट कवियोंने होनसे यह उनके चारो पैर एक ही जगह जमा एक कहा है- साधारण छड़ीके ऊपर इसे खड़ा कर सकते हैं। "अजायुद्ध ऋषिश्वाडे प्रभाते मेघडम्बर । हिमालय प्रदेशके लोग तिब्बत देशके साथ बाणिज्य दम्पत्योः कलह चैव वह्वारम्भे लघुक्रिया।"