पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१९८

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किया था। अज–अजकेशी १६१ होता है। तिब्वत देशके बकरेका लोम सर्वोत्कृष्ट प्राप्त नहीं होता ? इसलिये जीवका बहुत्व स्वीकार है। इसीसे काश्मीरके अच्छे-अच्छे दुशाले प्रस्तुत करना असङ्गत नहीं होता।' होते हैं। काश्मीरके महाराजने तिव्वतवाले बकरोंके नैयायिक कहते हैं, कि ज्ञानादि वृत्तियां जीवके पशमका ठेका ले लिया है, दूसरा कोई उसे खरीद धर्म हैं। जीव अनेक हैं, वे नित्य और व्यापक नहीं सकता। तिव्वतके समस्त पार्वतोय अञ्चलवाले रहते हैं। कर्तृत्व और भोक्तृत्व जीवोंका हो धर्म है। लोग बकरी पालते हैं। लाधक, पोधक, गरो प्रभृति जीव व्यापक होते भी (उनके अष्टलब्ध शरीरमें ?.) स्थानों में विस्तर बकरी विद्यमान हैं। शाल और पशम देखो। संयोगविशेषको जन्म और वियोगविशेषको हम मृत्यु न्यविधाका बकरा अफ्रीकाके न्य विया, उत्तरमिश्र और कहते हैं। नतुवा जीवका प्रकृत जन्म या उसकी अवसीनिया प्रदेशमें विस्तर रूपसे देख पड़ता है। प्रकत मृत्यु नहीं है। ऐसी ही युक्ति द्वारा नैयायिक इसके पैर लम्बे और शरीरके लोम क्षुद्र होते हैं। जीवात्माका अजत्व प्रतिपन्न करनेकी चेष्टा करते हैं। नेपाली श्रीर गिनि देशका बकरा-अधिक प्रसिद्ध नहीं है। अजक (सं० पु०) अज-कै-क । पुरुरवा-वंशके अज (सं० पु०) बुद्धिविशिष्ट शरीरस्थ जीव (जीवात्मा), सप्तम नृपति। विश्वामित्रने इसी वंशमें जन्मग्रहण जिस्म में रहनेवाली अल.मन्द रूह । वेदान्तकै मतसे बुद्धिविशिष्ट पुरुष ही जीव और अजकर्ण, अजकर्णक (सं० पु०) अजस्य कर्ण इव पर्ण स्त्री ही प्रकृति है। वेदान्तवादी कहते हैं, कि पर यस्य। जिस वृक्षमें बकरके कान जैसे पत्ते हों। ब्रह्मसे जीव पृथक् नहीं है। जगत्में जीव एक ; १ सालवृक्ष। अजस्य कर्णः। ६-तत्। २ बकरेके उसके बुद्धिरूप नाम भिन्न-भिन्न हैं, किन्तु नामभेद कान। स्वार्थे कन्, अजकर्णक । रहते भी, वह पृथक् नहीं। जेसे आकाश एक है, अजकव, अजकाव (सं० पु०-क्लो०) अजो विष्णुः को फिर वही आकाश घट और पट दोनो स्थानोंमें रह ब्रह्मा तौ वाति त्रिपुरासुरवधहारानेन वा-क करणे नेके कारण अनेक नहीं कहा जाता। इस प्रकारका ६-तत् (वाचं )। १ शिवधनुः। त्रिपुरासुरको वधकर उपाधिभेद रहते भी समस्त जीव एक ब्रह्मके सिवा महादेवने इस धनुहारा ब्रह्मा और विष्णुको तुष्ट किया और कुछ भी नहीं हैं। वैदान्तिकोंका सिद्धान्त है था, इसीसे इसका नाम अजकव रखा गया। अजक "सर्व खल्विदं ब्रह्म।" वाति। २ बर्बरी वृक्ष। ३ जहरीला विच्छू। यह समस्त जगत् केवल ब्रह्ममय है। जगत्के बबरी देखो। समस्त प्राणी ब्रह्म हैं, जगत्में सिवा ब्रह्मके और कुछ अजका (सं० स्त्री०) अजस्य विकारः अवयवः गलेस्तनः भी नहीं है। इसीसे वेदान्तवादी मनुष्यको भी विकारार्थे कन्। १ छागगलस्थित स्तनाकार मांस- कहते हैं- पिण्ड, बकरके गलेमें स्तन जैसा मांसका लोथड़। "तत्त्वमसि २ बकरकी विष्ठा या उसकी लेंडी। तुम्ही वह ब्रह्म हो। अजकाजात (सं० पु०) अजकेव जातः, ५-तत् । "निरोधरा: मांख्या: ।" रोगविशेष। रक्तवर्ण ब्रण। आंखको लाल फूली, सांख्यवादी ईश्वर नहीं मानते, इससे उनकी आँखोंमें वेदान्तके मत भ्रान्त जंचते है। सांख्यमता- अजकाव (सं० पु०-लो०) १ यज्ञीय पात्र, यजका वलम्बी कहते हैं-'जगत्में अनेक जोव विद्यमान हैं। २ रोगविशेष, एक किस्म की बीमारी। किन्तु यदि यह स्वीकार किया जाये, कि जगत्में एक अजको विष्णुब्रह्माणो अवति अच् । ३ शिवधनुः, ही जीव है, तो एकके जन्म और मरण और सुख महादेवका धनुष। दुःखसे दूसरेको जन्म-मरण और सुख-दुःख क्यों अजकेशी (सं० स्त्री०) नीलीवक्ष । नाखूना। बर्तन।