पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२०७

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अजस्र-अजाघ्रात अजस्र (सं० क्लो०) न जसु मोक्षणे-र, तच्छोल्यादौ शब्दका विशेषण होनेके कारण स्त्रीलिङ्ग नहीं होता। कर्तरि । नमिकम्पिस्म्यजसकमहि'सदीपो रः । पा ३।२।१६७ । सन्तत, अजहा (सं० स्त्री० ) हा-क, न जहाति शूकान्, चिरकालस्थायौ, निरवच्छिन्न। (क्रि. वि०) सदा, नञ्-तत्। कोंच, कीचको फली। हमेशा। अजा (सं० स्त्री०) सांख्यमतसिद्ध प्रधान पर्यायस्थ अजहत्वार्थी (सं० स्त्री०) न-ओहाक् त्यागे-शल्ट समान अवस्था-विशिष्ट और सत्वरजस्तमोरूप गुणत्रय । अजहत् । न जहाति स्वार्थों याम् । १ जिसको निजका "अजामको लोहितवष्णवीं बता प्रजाः सृजमानां सरूपाम् ।" (श्वेताश्व० उ०) अर्थ परित्याग न करे। २ अलङ्कारशास्त्रके लक्षणा अर्थात्-लोहित, शुक्ल और कृष्णवर्णवालो समान नामक शब्दको वृत्ति या शक्ति विशेष । इसका दूसरा रूपको बहुतसो प्रजा जिस प्रकृतिने उत्पन्न को, नाम उपादानलक्षणा है। मम्मटभट्टने इसका यह अन्य पुरुष अर्थात् जीव उसे परित्याग करता है। लक्षण बताया है- इसी प्रकृतिको सत्वादि गुणानुसारसे खेतादि रूप- "स्वसिद्धये परापेक्ष परार्थे स्वसमर्थनम् । युक्त बहु प्रजा उत्पन्न करनेके कारण सांख्यवादियोंने उपादानं लक्षणञ्चत्यु का शुद्ध व सा विधा॥" नाना वर्ण होनका उल्लेख किया है। अन्वयसिद्धिके लिये अन्यका आश्रय ले जो शब्द दूसरेके अजाक्पणीय (वै० त्रि०) बकरी और कञ्ची जैसा । अर्थ में अपने अर्थको समर्थन कर, वही उपादानलक्षणा अजाक्षौर (सं० लो०) बकरौका दूध । है। उपादानलक्षणा दो प्रकारको होती है-रूढ़िमूल अजागर (सं० पु०) जाट-अच् इति जागरः ,न जागरः और प्रयोजनभूल। जैसे-वेतो धावति। यानी खेत यस्मात् बहुव्री। १ भृङ्गराज, भीमराज, धमिरा। वर्ण दौड़ता है। खेतवर्ण कभी दौड़ नहीं सकता। भृङ्गराजको सेवन करनेसे निद्रा नहीं आती। २ अज- सुतरां इस जगह श्वेतवर्ण का प्रकृत अर्थ नहीं लगता, गर। (त्रि०) ३ न जागनेवाला। इसौसे क्रियाके साथ भी ठीक अन्वय नहीं होता। अजागल (सं० पु०) १ बकरेकी गर्दन यहां खेतवर्ण में जो लक्षण है, उससे खेत पवादि अजागलस्तन (सं० पु०) १ बकरेके गर्दनका नाकाम 'कुन्ताः प्रविशन्ति' का स्तन। समझना पड़ेगा (रूढ़िमूल )। २ किसी व्यर्थ वस्तुको उपमा। अर्थ है, कि अस्त्र प्रवेश करते हैं। इस बातके अजाघ्रात (सं० लो०) अजेन छागेन आघ्रातम्, कहनेका प्रयोजन यह है, कि अष्टाङ्ग अस्त्रशस्त्रभूषित ३-तत् । बकरसे शरीर सुंघाना, प्रायश्चित्तविशेष । काश्यपने व्यवस्था बताई है, कि यदि रजस्वला खौ पुरुष प्रवेश करते हैं (प्रयोजन-मूल)। अज़हद (फा० वि०) अपरिमित रूपसे, अत्यन्त चाण्डाल और श्वपाकको स्पर्श कर, तो ऋतुके तीन दिन बिता त्रिरात्र उपवासमें रहे और पञ्चगव्यसे अधिक । बहुत ज्यादा। अजहल्लिङ्ग (सं०.पु०) हा-(ओहाक् त्यागे) शट, शुद्ध हो, इसके बाद छागलसे अपना शरीर न जहत् लिङ्गं यम् ; बहुव्री। जो शब्द, भिन्न लिङ्ग सुंघावे- विशेष्यके विशेषण रूपसे प्रयुक्त होते भी अपने "चाण्डालन श्वपाके न संस्पृष्टा चंद्रजखला। तान्यहानि व्यतिक्रम्य प्रायश्चित्तं समाचरेत् ॥ लिङ्गको परित्याग न करे। यथा-वेदः अतिर्वा प्रमाणम विरावमुपवासःस्वात् पञ्चगव्येन शुध्यति । यानी वेद किंवा श्रुति ही प्रमाण है। इस जगह तां निशान्तु व्यतिक्रम्य अजानातन्तु कारयेत्॥" वेद पुंलिङ्ग, श्रुति स्त्रीलिङ्ग और प्रमाण क्लीव लिङ्ग स्पर्श विषयमें वृहस्पतिने एक अतिरिक्त विधि शब्द है। किन्तु वेद और श्रुति शब्दके विशेषण लिखी है। यथा- रूपसे प्रयुक्त होते भौ प्रमाण शब्द अपने लौव लिङ्गको परित्याग नहीं करता। अर्थात् वेद शब्दका "तीर्थ विवाह बाबायां संग्रामे देशविनवे । विशेषण स्वरूप होनेसे यह पुंलिङ्ग और श्रुति नगरग्रामदाह च स्पृष्टास्पृष्टि न दुष्यति ॥” ५१