पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२११

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अजिण्ठा विहार या संन्यासियोंके मठ बने हैं। आजकल इन मोती या सोनेका पंचलरा हार, बांहपर बाजूबन्द और सबके ऊपर चढ़ा जा नहीं सकता। चार चैत्य और हाथमें कड़ा विद्यमान है; अङ्गपर पोशाक देख नहीं तेईस विहारोंपर चढ़नेमें क्लश नहीं। बाकी दो पड़ती। किसौ स्थलमें वीरपुरुषोंके अपर पोशाक स्थान अतिशय दुर्गम हैं। मन्दिर उंचाई और सजी हुई है। कोई हाथीपर बैठे और हाथमें धनुर्वाण चौड़ाई में समान और जितने चौड़े, उससे दूने लम्बे और बरछा लिये सशस्त्र मृगया करने जाता, किसीने हैं। छत ऊंची और उसमें नक्काशी को हुई है। - मृगयाके लिये जाकर वनके भीतर दुर्जय सिंहको किसी-किसी छतमें लकड़ीके तख्ते पटे हुए हैं। मार डाला है। पुरातन चित्रोंमें वीरपुरुषोंके हाथ जिन मकानोंमें तख ते नहीं पटे, उनको छतमें पत्थर नाना प्रकार अस्त्र देख पड़ते हैं, किन्तु कहीं भी ठौक तख त जैसे काट-काटकर लगाये गये हैं। पुराने बन्दूक नहीं मिलती। उस काल का अग्न्यस्त्र बन्दूक मन्दिरोंके खम्भे अठपहलू हैं, उनके नीचे या ऊपर होनेसे क्या हम उसे किसी वोरके हाथमें नहीं किसी तरहको नक्काशी नहीं बनी है। किन्तु देखते ? विहारमें ईरानकै बादशाह द्वारा सन् ६२६ आधुनिक स्तम्भोंके नीचे वेदी है और उनके गात्र और ई० में दक्षिणके अधिपति पुलकेशिके पास भेजे गये कार्निसमें तरह-तरहके बेल-बूटे और चित्र सजाये एक दूत और उसके आनेका अपूर्व चित्र उतारा गया गये हैं। मन्दिरके सम्मुखमें प्राचीर है। प्राचौरमें है। दो बैलोंको लड़ाई भी बड़ी ही ख बसूरतीसे एक मन्दिरके पास चबूतरा और दूसरेके पास नाट्य दिखाई गई है। एक राजाका जुलूसके साथ निकलना शाला विद्यमान है। देख मन मुग्ध हो जाता है। यह ठीक नहीं कह सकते, कि अजिण्ठेके अजिण्ठेको दूसरी ओर जाइये, और भी अनेक बौद्धाश्रमको बने कितने दिन हुए। पत्थरके ऊपर चित्र देख पड़ते ; चित्रोंक गात्रमं और भी अनेक जो सकल वृत्तान्त खुदे थे, वह मिट गये हैं-अब इतिहास लिखे हैं। नृपति अन्तःपुरमें राजमहिषि- सब पढ़े नहीं जा सकते। कोई-कोई विद्वान् अनुमान योंके साथ बात करते ; पास ही सहचरियां बैठी हैं। करते हैं, कि ईसा मसीहके जन्मसे २०० वर्ष पहले सहचरियां गौराङ्गिणी हैं,-बैठी हुई मानो अपने रूपको गरिमा दिखा रही हैं। देखनेसे बोध होता है, अन्धराज वशिष्ठपुत्रने अजिण्ठेका देवालय जनक गृहस्थको दान कर दिया था। कोई-कोई इसके मानो वह इस भारतको नहीं सकल हो यवन- निर्माणका समय सन् ५५० से ६४२ ई० तक बताते कन्यायें हैं, ईरान या युरोपसे आ पहुँचौ हैं। हैं। किन्तु इसपर रंगामजी समय-समयसे होती बड़े चित्र में विजयका लङ्कामें पहुंचना और रही, जो अधिक चालुक्य और अल्प बरारराज या सिंहासनारूढ़ होना और एक मन्दिरको कारीगरी वाकाटकके समय रची गई। देख बौद्धोंके गुणको प्रशंसा करनी पड़ती है। मिष्टर अजिण्ठेके चैत्योंवाले चित्र देखनेसे पूर्वकालको ग्रिफ़िथके मतसे युरोपमें इन चित्रों को कहीं भी समता नहीं मिलती। चीना साधुओंके भी चित्र बहुत ही वेशभूषा और उसके आचार-व्यवहारका अनेक परिचय मिलता है। चित्रोंमें अनेक हो देवमूर्तियां हैं। स्थान- अच्छे हैं। पूर्वकालसे ही इस देशके नृपति ईरान -स्थानमें राजसभा बनी है। सभाके मध्यस्थलमें नृपति आदि देशोंकी सुश्री यवनकन्या लाकर अपनी सहचरौ और उनकी चारो ओर सभासद बैठे हैं। राजाको मूर्ति बना लेते थे । दुष्यन्त राजा अनुमालिनी नदीके कूलपर परिष्कृत काञ्चनवर्ण है ; चक्षु छोटे-छोटे, होंठ मोटे, कख मुनिके आश्रममें मृगया करने गये थे; उनके कान बड़े, दाढ़ीका नाम नहीं, मुखमें केवल थोड़ी साथ यवनकन्या भी थी। इसका उल्लेख शकुन्तला- नाटकमें मिलता है- थोड़ो मूछ और शिरके बाल एकत्र ऐंछकर दक्षिण "एसो वाणासणहत्याहिं जवणीहिं वणपुप्फमालाधारिणीहिं परिवूदो, दिक्को चूड़ा बंधी है। अलङ्कारके मध्य गलेमें इदो एव्व आमच्छदि पिअवस्सो।" ५२ एक.