पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२१२ अञ्चित-अञ्जन अञ्चित (सं० त्रि०) अन्च-क्त । अञ्चे: पूजायाम् । पा ७.२१५३ १ पूजित, पूजा गया। २ आकुञ्चित, सिकुड़ा हुआ। अञ्चितधू (सं० स्त्री०) अञ्चित कुटिले ध्रुवी यस्याः। सुन्दरम्भूयुक्त नारी, टेढ़ी भौंहोंवाली स्त्री। अञ्जक (सं० पु.) १ यदुके पुत्र । २ विप्रचित्तके पुत्र। अञ्जन (स. क्लो०) अज्यतेऽनन, अन्ज-ल्युट १ काजल। २ सुरमा। अञ्जन सौवार, जाम्बल, तुस्थ, मयूर, श्रीकर, दविका और मेघनील- छः तरहका होता है। "सौवीरं जास्यत्न तुल्यं मयूर थोकरं तथा । दविका मेघनीलञ्च अन्ननानि भवन्ति षट् ॥ सबदूपन्तु मोवीरं जाम्वन्तु प्रस्सर तथा । मयूरं बीकरं रत्न' मैघनीलञ्च तैजसम् ॥ मृत लादियोगेन तामादौ दीपवङ्गिना। यदानं जायते तु दविका परिकीर्तिता।" ( कालिका-पुराण।) अञ्जनमें अनेक गुण होते और यह कितने ही रोगोंको दूर करता है। भावप्रकाशमें लिखा है,- अक्षि रोगाय दोषा: युबद्धितीत्पीड़ित द्रुताः । प्रातः सायश्च तच्चान्तरमकै ऽतोऽञ्जयेत् सदा ॥ कण्डूजातेऽननं तीक्षा' धूम वा योजयेत् पुनः । तीक्षणाचनाभितने तु चर्ण प्रत्यञ्जनं हितं ॥ नायडीत वमित विरक्ताशित गिते। क्रुद्ध चरित भ्रान्ताक्षि शिरीरुथा शोषजागर ॥ अदृष्ऽक शिर: नाते पौतयोर्धन मद्ययोः । अजीणे इत्यर्क सन्त दिवास्वप्ने पिपासिते ॥ निर्वात तर्पणं योज्यं शुद्धयोस् बैंकायोयः । काल साधारण प्रातः सायं वोत्तानमायिनः ॥ यवमाषमयीं पाली नेवकोणाइहिः समां । बाहुलीच्चा दृढ़ां कला यथास्व' सिमावपेत् ॥" करण। "अथाञ्जनं शुद्धतनोबमावायये मले । पक्वलिजऽल्प शोथाति कण्डूपैच्छित्य लचिते ॥ मन्दधर्षाच रोगेऽक्षिा प्रयोज्यं घनदूषिके । लेखनं रोपणं दृष्टिप्रसादनमिति विधा । अञ्जनं लेखनं तब कषायान्त्रकदृषणैः । रोपणं तितक,व्यः स्वादशीः प्रसादनं । दशाङ्गुला तनुर्मध्ये शलाका मुकुलानना। प्रशस्ता लेखन तामे रोपणे काल लोहजा॥ अङ्ग लावसु वर्णीत्या रुष्यजा च प्रसादने। पिण्डो रसक्रिया चूर्ण विधवाञ्जन कल्पना॥ गुरौ मध्ये लघी रोष तां क्रमेण प्रयोजयेत् । अथानुन्मौलयन् दृष्टो अन्तःसञ्चारयच्छनैः ॥ अञ्जिते वम नौ किञ्चित् चालवश्वमञ्जनं । अपेतोषध सम्बन्ध निहतं नयनं यदा ॥ व्याधि दोषन्तु योग्वाभिरशिः प्रक्षालयेत्तदा । दक्षिणा ठकेनाक्षि ततोकामं सवाससा ॥ अई वानि संग्टह्य शोध्य बामे न चेतरत् । निशि स्वप्नै न मध्यानपानान्त्रीणागतस्त्रिभिः ॥ इस देशमें अनेक प्रकारका अञ्जन प्रचलित है। प्रसूतिवाली स्त्रियां सचराचर शिशुकी आंख में जो अञ्जन लगातों, वह सामान्य प्रणालोसे प्रस्तुत होता है। कजरौटेको कुछ तेल लगा प्रदीपको शिखापर रखनेसे काजल पड़ता है। वही काजल अङ्गुलौसे मिला लेनेपर अञ्जन बन जाता है शिशुको आंखसे जल गिरने या रातको आंख छोप जानसे चार प्रकारका अञ्जन बनाया जाता है। मकड़ेके जालेका चन्द्र जलाकर कजरौटेमें उत्तम रूपसे चूर्ण कर ले। फिर उसे अल्प तैल डाल प्रदीपको शिखापर रखे। कुछ पपरो पड़नेपर अङ्गुलि द्वारा उसे खूब मल डाले। इस तरह जो अञ्जन बनता, उसे शिशुको आंखमें लगानेसे जल गिरना बन्द हो जाता है। लहसुनको गांठ या तम्बाकूका पत्ता भी अल्प दग्ध कर इसी तरह अञ्जन बनता है। पांगरा (Erythrina indica) वृक्षका बकला अल्प तेल डाल प्रदीपको शिखायर रखनेसे कुछ पपरी पड़ती है। उसी पपरौको अङ्गलि द्वारा मर्दन कर लेनेसे उत्तम अञ्जन बन जाता है। पञ्जाव और युक्तप्रदेशमें सुरमेको सब लोग व्यवहार करते हैं। बङ्गालमें प्रसूतिवाली स्त्रियां शिशुको आंखमें अञ्जन लगा देती हैं ; सिवा इसके और किसी इच्छासे वह काजल नहीं पारतीं। किन्तु हिन्दूस्थानमें प्रायः सभी सुरमको धारण करते हैं। सुरमा लगानेके लिये दिल्ली, इलाहाबाद