पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२१९

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अञ्जन २१३ - मालूम होता, प्रभृति बड़े-बड़े शहरोंमें पेशेकश लोग भी रहते नेत्रमें लगानेसे अल्प-अल्प ज्वाला बढ़ती, किन्तु हैं। नापितको कुरहरी जैसी उनके निकट एक पौड़ाका कितना ही उपशम हो जाता है। एक झोली होती है। भोलीके भीतर सुरमको ३ मसी, स्याही। ४ सौवीर। ५ मिश्रीकरण, शोशी, सौसकी दो ढालू सलाइयां, सीसेके दो मोटे मिलावट। ६ लेपन। ७ मालिन्य, मैलापन । पत्ते, थोड़ासा इत्र, एक चिमटी और एक दर्पण-यह ८म्रक्षण ।गमन । १० व्यक्तीकरण। (पु.) सब चीजें रखी जाती हैं। प्रातःकाल होनेसे यह ११ पश्चिम दिग्रहस्तो। १२ अर्जुनवृक्ष । १३ काव्या- पेशेकश झोली उठा धनवान् लोगोंके घर सुरमा लङ्कारविशेष। लगाने जाते हैं। पहले यह सोसेकी दोनो ढालू अलङ्कारशास्त्रका अञ्जनावृत्ति शक्य और लक्ष्य सलाइयां एक-एक बार आंखके भीतर फेर देते हैं। भिन्न अर्थबोधक शब्दशक्ति विशेष है। काव्यप्रकाशमें सौसा धातु सहज ही शीतल होती, इसीसे सावधान अञ्जन या अञ्जनावृत्तिका इसतरह लक्षण लिखा रहकर आंखमें फेरनेसे ख ब स्वस्तिबोध होता है। गया हैं- इसके बाद चिमटीसे माथेके बाल नोचकर आंखोंमें "अनेकार्थस्य शब्दस्य वाचकत्वं नियन्त्रिते। सुरमा लगा देते हैं। अञ्जन लगाके दोनो संयोगाद्यैरवाच्यार्थधोकटुव्यापूतिरञ्जनम् ॥" मोटे पत्ते कुछ देरतक आंख पर रखे रहते हैं। 'श्लोकादिके मध्यमें अनेक अर्थोंके बोधक शब्द रहते अन्तमें इत्र लगाकर मुंह देखनेको दर्पण देते हैं; संयोग-विप्रयोगादि द्वारा उनका वाचकार्थ यह सब पेशेकश प्रत्येक व्यक्तिके निकटसे निर्णीत होने के बाद जिस व्यापार द्वारा अवाच्य दो-एक पैसा पाते हैं। कि अर्थका बोध होता है, उसे अञ्जन या अञ्जनावृत्ति मुसलमान-सम्राटोंके राजत्वकालसे यह काम कहते हैं।' यथा- निकला है "भद्रात्मनोदुरधिरोहतनोविशाल- वैद्यशास्त्र में अञ्जनधारणका विशेष उपकार लिखा वंशोन्नतेः कृतशिलीमुखस'ग्रहस्य । गया है- यस्यानुपपतगतः परवारणस्य "नवमञ्जनसंयोगात् भवत्यमलतारकम् । दानाम्बुसेकमुभगः सततं करोऽभूत् ॥" दृष्टिनिराकुला भाति निर्मल यन्द्रमा यथा ॥" 'उत्तमस्वभाव, रिपुदलसे अनिर्जित, महदंशोद्भव, नेत्रमें अञ्जनको धारण करनेसे पुतलो परिष्कृत वाणधारी, उपद्रवहीन और शत्रु निवारक राजाका और दृष्टि निर्मल, चन्द्रको तरह निराकुल हो हस्त सर्वदा दानजलसेक द्वारा सुन्दर बना था।' जाती है। इस जगह राजाके प्रकरण हेतु पहले राज- ज्वररोगीके अज्ञान हो जानेसे वैद्य नेत्रमें अञ्जन रूपका अर्थ बोध हुआ। फिर इन सकल शब्दोंके लगानको व्यवस्था बताते हैं- शक्ति-सहकारसे हस्तिरूप अर्थ भी जाना गया। "शिरीषवीज-गोमूव-कृष्णमरिचसन्धवैः । 'भद्राख्य-जातीय, बड़े बांसके पेड़ जैसा ऊंचा, अञ्जनं वात् प्रबोधाव सरसोन-शिलावचैः॥" जिसके कारण दुरारोह-पृष्ठ, भ्रमरदल-परिवेष्टित और शिरोषवीज, गोमूत्र, पोपल, कालीमिर्च, सैन्धव गभौरगति हस्तिश्रेष्ठका शुण्ड सर्वदा मदजलसेक द्वारा लवण, रसून यानी लहसुन, मन:शिला और वचको शोभित हुआ है। एकत्र पेषण कर नेत्रमें आंजनेसे रोगीको चैतन्य प्राप्त यह अञ्जनावृत्ति काव्यको व्यङ्गार्थबोधक शक्ति है। होता है। आंख अानेसे (Opthalmia) ताम्रपान इस शक्ति द्वारा तात्पर्यार्थका बोध होता है। जिन में घृत डाल और उसे जल ढालते-ढालते मदन सकल शब्दों द्वारा श्लोकादि रचित होते, पहले उनके करनेसे एक प्रकारका अञ्जन बनता है। यह अञ्जन अर्थ द्वारा एक प्रकारका भाव घटा, पौछ फिर यदि ५४