पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२२२

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अञ्जर-अञ्जार हुए, विनम्र। कै-क-टाप्। कोसपर अवस्थित है। पर्वतके शिखरमें एक देवी- । अञ्जलिकारिका (स. स्त्री० ) द्दिविभ्यामञ्जलैः । पा ५।४।१०२॥ मन्दिर है और इसमें कितने ही देवमन्दिरोंका लज्जालु लता, लज्जावती लता, पुत्तलिका, लाजवन्ती। भग्नावशेष देख पड़ता है। एक टूटे मन्दिरपर अञ्चलिका देखो। २ वराहक्रान्ता। शक १०१६ में खोदी गई सेन्त्रचन्द्र नामक किसौ अञ्जलिगत (स• त्रि०) अञ्जलिके भीतर, अञ्जलिमें यादवराजको एक लिपि देख पड़ती है। रखा हुआ। अञ्जर-कच्छ प्रदेशका एक छोटा जि.ला। सन् १८१६ अञ्जलिनी (सं० स्त्री०) लज्जालुका, लाजवन्ती। ई० में कच्छराजने इसे ईष्ट इण्डिया कम्पनीको दे अञ्जलिपुट (स० पु०) अञ्जलिका पुट या दिया था। अब यह बम्बई-गवर्नमेण्टके तत्वावधानमें गड्डा। शामित होता है। यहां रत्नाल नामक एक ग्राम अञ्जलिबद्ध (स० त्रि०) अञ्जलि बांधे या हाथ जोड़े और रोहर नामक एक बन्दर है, किन्तु यह दोनो भूभाग जलशून्य हैं। अञ्जस् (स. क्लो०) अन्जु गतौ मिश्रणे छ- २ अञ्जर जिलेका प्रधान नगर। यह पर्वतके किनारे असुन्। ओजःसहोम्भस्तमसस्तृतीयायाः। पा ६।३।३।। अनस उप- बना और कच्छोपसागरसे कोई पांच कोस दूर है। सख्यानम् । ( कात्या० वार्तिक) १ वेग, बल ; जोर, ताकत । अञ्जल-अञ्जलि देखो। २ औचित्य, मुनासिब बात। अञ्जलि (सं० पु०) अञ्ज-अलिच् । अञ्ज रलिछ । उण ४।२। अञ्जस (सं० त्रि०) अन्ज-असच्। सरल, ऋजु, १ हस्तसम्पुट, अंजुरी। २ परिमाण विशेष, कुड़व। अवक्र ; सौधा, टेढ़ा नहीं। स्त्रियां ङोप् । स्वर्णदीभेद । अञ्जलिका (स. स्त्री०) अञ्जलिरिव कायति प्रकाशते- अञ्जसा (सं० अव्य०) १ द्रुत, शीघ्र ; जल्द, फ़ौरन । १ बालमूषिका, मुसरिया। २ लज्जालु, २ यथार्थ में, प्रकृतसे। अञ्जसाशब्द पाख्यातस्तत्त्वतूथयोरपि । लाजवन्ती। यह भारतके उष्णप्रधान देशोंमें अधिक (मेदिनी)। नाजसा निगदितु विभक्तिभिः । माघ १४॥२३॥ अथवा उत्पन्न होती है। दाक्षिणात्यमें इसकी जड़ पेटके अनसा इति तृतीयान्तप्रतिरूपकमव्ययं तत्त्वाथ। (मल्लिनाथ ) दर्दकी औषध समझो जाती है। कुरुमण्डलमें | अञ्जसायन (सं० त्रि०) सीधा जानेवाला। अर्श और भगन्दर होनेसे इसकी पत्तीका चूर्ण अञ्जसीन (वै० त्रि०) सीधा जानेवाला। दूधके साथ सवेरे खिलाया जाता है। पञ्जाबमें अञ्जस्या (वै त्रि.) सोमरसको पीते हुए। भी लोग इस औषधको इसी प्रकार सेवन करते अञ्जःसव (सं० पु.) सोमका शीव्र साधन, सोम- हैं। रक्तपित्त बिगड़नेपर मुसलमान हकीमोंने रसको जल्द तय्यारी। इसे पाचक, स्वास्थावईक और लाभदायक बताया अञ्जार-बम्बई प्रेसिडेन्सीके अन्तर्गत कच्छप्रदेशका भगन्दरके क्षतीपर इसका रस भी लगाया एक नगर। अक्षा' २३६ उ० और द्राधि० ७०० जाता है। लोग इसको पत्तो टोने-टटकेसे तोड़ते १० पू०के मध्यमें यह अवस्थित है। इसकी लोक- । पहले सप्ताह यह समस्त पित्तरोग और ज्वर, संख्या अठारह हज़ारसे कुछ ज्यादा है। नगरके दुसरे सप्ताह अर्श, भगन्दर आदि और तीसरे बाहर एक मन्दिर देख पड़ता है। अजमेरवाले सप्ताह कुष्ठादिको मिटा देती है। कोकण प्रान्तमें चौहानराजके भाताको अश्वारूढ़ मूर्ति इस मन्दिरमें वृषण वृद्धिपर इसकी पत्तीका पुलटिस बांधते और विद्यमान है। सन् ई०वाले ८वे शताब्दके प्रारम्भमें इसके रस और घोड़ेके पेशाबसे अञ्जन बनाते, जो अजयपाल, राज्यसे विताड़ित हो इस स्थानमें आ पहुंचे आंखें उठनेपर लगाया जाता है। बहुत खांसी और सन्न्यासधर्म अवलम्बनपूर्वक रहे थे। उन्होंके आनसे इसकी जड़ गलेमें यन्त्रको भांति बांधते हैं। नामसे अजार नामको उत्पत्ति है। इस मन्दिरके ३ जटामांसी। व्ययनिर्वाहार्थ कितनी ही देवोत्तर भूमि लगी है।