पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२३

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अकड़म-अकथह प्रकोष्ठ सिद्ध, दूसरा-साध्य, तीसरा-सुसिद्ध, चौथा पत्तेपर अरि-मन्त्र लिखकर उसे नदीको धारमें अथवा अरि। जबतक वीजमन्त्रका घर न मिले, तबतक अन्य बहते हुए जलके सोतमें बहा देनेसे मन्त्रका इसीतरह बराबर कहते हुए गिनना चाहिये। वीज त्याग हो जाता है। तन्वराजके मतसे, एक दौना दूधमें मन्त्रवाले कोठेमें सिद्ध साध्य अथवा सुसिद्ध होनेपर एक सौ बार अरि-मन्त्र का जप करके उसका कुछ अंश मन्त्रोद्धार होता है और गुरु वही मन्त्र शिष्यको दीक्षा पीकर शेष बहते हुए जलमें बहा देनेसे अरिमन्त्रका में देते हैं। हां, सुसिद्ध मन्त्रका फल बहुतही अधिक त्याग जाता है। है। क्योंकि उसके द्वारा साधक अनायासही सिद्ध | अकड़ाब (हि. पु०) ऐंडन । खिंचाव । हो सकता है । सिद्ध आदिका फल उतना नहीं है। अकड़त-अकड़बाज़। इस तरह विचारमें वीजमन्त्र के कोठेमें यदि अरि अकत (हि.) सारा । आखा । समूचा। (क्रि० वि०) पड़ा, तो कभी मन्त्रोद्धार न होगा। ऐसे स्थानमें गुरु, बिलकुल । सरासर। शिष्यका एक नया नाम रखकर मन्त्रोद्धार करते हैं। अकथ (हि०) जो कहा न जा सके। कहनेको सामर्थ्य के हिन्दू धर्मको ओर जिनको अचलभक्ति है, वे बालक बाहर, अकथनीय। अनिर्वचनीय के नामकरणके समयही इस विषयमें सतर्क हो जाते अकथनीय (सं० वि०) न कहे जाने योग्य । अवर्णनीय । हैं। ऐसा नाम कभी नहीं रखते, जिससे मन्त्रोद्धार अकथह-दीक्षाके समय शिष्यको सिद्धि आदिजाननेका न हो। एक प्रकारका चक्र। अर्थात् इष्ट मन्त्र शिष्यके नामके यदि शिष्यको सिद्धमन्त्रसे. दीक्षा दी गई, तो शिष्य साथ अच्छी तरह मिलता है या नहीं और वह इष्ट बहुत दिनोंमें अवश्य सिद्ध होता है। साध्यमन्त्रको मन्व शिष्यको अच्छा फल देनेवाला होगा या नहीं, दीक्षा होनेपर शिष्य जप, होम, आदि द्वारा सिद्ध इस चक्रसे यह भलीभांति मालम हो जाता है। पहिले होता है और सुसिद्ध मन्त्र यदि कहीं मिल गया, तो अकथह है, इस लिये इस चक्रका नाम भी अकथह पड़ा मन्त्र लेतेही सिद्ध हो जाता है। परन्तु अरिमन्त्र है। यह चौकाना क्षेत्र पहिले चार भागोंमें विभक्त साधकको नष्ट कर देता है। किया जाता है। इससे चारखाने या कोठे बन जाते हैं। अकड़म चक्र। अकथह-चक्र। श्र 97 क ख अक आ ऊ म य. AL डप खद च फ 2 ओ औ be a ड व झम ढश जष 4 IB 2 29 a ऋ ऋ घन जभ गध छ व यदि भमसे अथवा भूलसे गुरु किसीको अरि-मन्त्र दे दें और शिष्यको मालूम हो जाय कि, मुझेअरि-मन्त्र दिया है, तो वह उसे त्याग भी सकता है; और उसे त्याग करना आवश्यक भी है। मन्त्रत्यागके दो नियम अथवा प्रकरण हैं। तन्त्रकौमुदीके मतसे बड़के अः ऐ अं ए तस ठल ण ष टर 1