पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२५१

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अतत्त्वविद्-अतप्तनु २४५ आहन्यते यत् इति तटम् । १ टोला, वह स्थान जहां रहता, वहां तद्गुणसंविज्ञान होता है। जैसे,- तट या किनारा न हो।२ पर्वतका उच्चस्थान, चोटी, त्रीणि लोचनानि यस्य स त्रिलोचनः शिवः । इस जगह शिखर । ३ भूमिका अधोभाग। समासवाच्यमें तीन लोचन रहनेसे इसका नाम तद्- अतत्त्वविद् (सं० पु. ) ब्रह्म और जीवको एकता न गुणसंविज्ञान हुआ। फिर, हतः कंसः येन हतकंसः समझनेवाला पुरुष। कृष्णः । इस जगह समस्यमान पदार्थ हत और कंस अतथा (दै० पु०) वैसा नहों, उससे विभिन्न । समासवाच्य कृष्णमें नहीं, इसलिये इसका नाम अतद्- अतथोचित (स. त्रि.) न तथारूपमुचितम्। गुणसंविज्ञान हुआ। अन्याय्य, अनुचित। अतहान् (सं० वि०) असदृश, असमान, जो किसीके अतथ्य (सं० त्रि०) १ झूठ, असत्य, जो सच न हो, बराबर न हो। अन्यथा । २ असमान, ऊंचा-नीचा। प्रतनु (सं० पु०) १ कामदेव । (त्रि०) २ मोटा। अतदह (सं० त्रि.) १ किसी वस्तुके अयोग्य । ३ विना शरीर। (अव्य.)२ अयोग्यतासे । प्रतन्त्र (सं० त्रि.) न तन्वं कारणं तदधीना विवक्षा अतद्गुण (सं० पु०) अर्थालङ्कार-विशेष । काव्य वा यस्य, बहुव्री। १ कारणशून्य। विवक्षारहित । प्रकाशमें इसका इसतरह लक्षण लिखा है,-"तद्रूपाननु- तस्यादित उदात्तमईहस्वम् । पा १।२॥३२॥ इस सूत्रको वृत्तिमें हारश्चेदस्य तत् स्यादतद्गुणः।” सदृश वर्ण या गुण होनेका भट्टोजि-दीक्षितने लिखा है, इखग्रहणमतन्त्रम् । २ अविव- कारण विद्यमान रहते भो जहां संघटित न हो, क्षित, ग्रन्थकारके कहने की इच्छाका अविषयीभूत । उसीको अतद्गुण कहते हैं । यथा,- प्रतन्द्र (सं. त्रि.) नास्ति तन्द्रा निद्रा आलस्यं वा यस्य। १ निद्रारहित, निरालस्य, फुरतीला। २ "गाङ्गमम्बु सितमम्बु यामुन सावधान, सचेत। राजहंस ! तव सैव शुधता अतन्द्रा (सं० स्त्री०) १ काफो, कहवा । २ चाय । चौयते न च न चापचौयते।" अतन्द्रिक (संत्रि०) १ अनलस, चुस्त । २ व्याकुल, गङ्गाका जल सफेद और यमुनाका जल काला है। हे राजहंस ! तुम इन दोनो जलोंमें नहाते हो, किन्तु अतन्द्रित, अतन्द्रिन् (स० त्रि०) न तन्द्रा जाता इससे न तो तुह्मारा रङ्ग गोरा और न काला यस्य, तारकादित्वात् इतच्। अनलस, अजातनिद्र। होता है। (स्त्री) अतन्द्रिता। अतन्द्रिता सा स्वयमेव वृक्षकान् यहां हंसका स्वाभाविक वर्ण हो वर्तमान रहा, घटस्तनप्रस्रवणैर्व्यवईयत् । कुमार० ८१४।" उन्हीं देवीने आलश्य- किन्तु वर्णान्तर उत्पन्न नहीं हुआ ; इसोसे विषमा- शून्य हो और घटरूप स्तनों द्वारा जलधारा बरसा उन छोटे-छोटे वृक्षोंको परिवर्द्धित किया था। लङ्गारसे इसमें प्रभेद देखा गया। ऐसा न होनेसे अतप (सं० त्रि.) शान्त। विषमालङ्कार हो जाता। ३ अनियुक्त। (पु.) ४ बौद्धोंके देवताओंकी एक अदगुणसंविज्ञान (स• पु०) न तस्य गुणीभूतस्य श्रेणी। सम्यक् ज्ञानं यत्र, बहुव्री०। समासविशेष। मुग्ध- अतप्त (सं० त्रि.) १ जो तपाया न गया हो, बोधको टीकामें दुर्गादासने लिखा है,-"तद्गुणसंविज्ञानो- ठण्डा।२ कच्चा। ऽतद्गुणसंविज्ञानश्च । यव समस्यमानपदार्थः समासवाच्य वर्तते स तदगुणसंविज्ञानः। यथा विलोचनः शिवः । तदन्योऽतद्वगुणसंविज्ञानः। अतप्तनु, अतप्ततनु (सं० त्रि०) न तप्ता व्रतादिना यथा हतकंस: कृष्ण इति।” प्रयोजन यह है, कि बहुव्रीहि तनुरस्य । तप-क्त तप्तः। तन्-तन्यते कर्मपाशोऽनया समास करनेसे समस्यमान पदार्थ जहां समासवाच्यमें तनुः शरीरम् । १ जिसका शरीर व्रतादि द्वारा तपाया कब्जलाभमुभयव मज्जतः । वैचैन। १ ठंढा।