पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२६०

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तो वह अघाना। २५४ अतितपखिनो–अतिथिसंविभाग अतितपस्विनी (स. स्त्री०) गोरखमुराडी। "अतिथियस्व भग्नाशी हात् प्रति निवर्त्तते । स तम्मे दुष्क तं दत्वा पुण्यमादाय गच्छति ॥" अतितपस्वी (स.त्रि०) बड़ी तपस्या करनेवाला। अतितमाम्, अतितराम् (सं० अव्य०) अत्यन्त, ज्यादा, अतिथि निराश हो यदि किसी के भी घरसे लौटता, बहुत अधिक। अपना पाप दे गृहस्थका पुण्य लेते अतितार (स० पु०) अतिशयितस्तारः । १ मोती जाता है। किसी जगह एक रातसे अधिक न रहने- आदिको अतिशय शुद्धि। २ अतिशय उच्चस्खर । वाला सन्यासी ।३ यज्ञमें जो सोमलता लाये । ४ सूर्य- (त्रि.) ३ उच्चस्वरयुक्त, बड़ी आवाज़का। ४ बहुत वंशीय एक राजपुत्र । यह श्रीरामचन्द्रजौके पौत्र और अच्छे मोतियोंका। कुशके पुत्र थे । ( रामायण ) कुशने कुमुद नामक नागराज अतितार्च (स.वि.) पार करने योग्य । कौ कन्या कुमुद्दतोसे विवाह किया था, जिसके गर्भसे अतितीक्ष्ण (सं० वि०) अतिशयेन तीक्ष्णस्तोवरसो अतिथिका जन्म हुआ। सुतरां नागवंशके दौहित्र यस्य । १ सिर्का, मिर्च आदि। (त्रि.) २ अतिशय होनेसे इनकी बड़ी कुलमर्यादा रही। यह पुत्रकी तौव्र, बहुत तीता या कडुआ। तरह प्रजाको पालते थे। रघुवंशमें इनके राज्य- अतितीव्र (सं० पु०) तीव्रसे भी अधिकतर, बहुत तेज़। शासनको सुप्रणालीका वर्णन किया गया है। अतितीव्रा (स. स्त्री०) अतिशयेन तीव्रा तीक्ष्णा। ( रघुवंश १७ सर्ग ) इनके पुत्रका नाम निषध था। गन्धदूर्वा, अतिढण। अतिथिक्रिया (सं० स्त्री०) अतिथि-सत्कार, घरपर अतिप्ति (सं. स्त्री०). अधिक हप्त होना, बहुत आये हुएका सत्कार करना। अतिथित्व (सं० लो०) अतिथिको स्थिति, मिह- अतिष्णा (स. स्त्री०) बड़ी प्यास। मानदारी। अतितेजिनी (सं० वी०) त्रिपर्णी, तेजबला। अतिथिदेव (सत्रि.) देवरूप अतिथि। अतित्यद् (सत्रि.) उससे बढ़कर, उससे श्रेष्ठ। अतिथिद्देष (स० पु०) नामिहमानदारी, अतिथिसे अतिवष्णु (संत्रि.) निहायत डरपोक । लड़ाई-झगड़ा। अतिथि (सं० पु०) अतति गच्छति न तिष्ठति, अतिथिन् (वै० त्रि०) १ झूमनेवाला । (पु०) २ एक अत-इथिन्। अतेरिथिन्। उण ४।२। १ आगन्तुक, आवे राजाका नाम। शिक, यहागत, अभ्यागत, मिहमान, पाहुना, भिक्षा अतिथिपति (सं० त्रि०) अतिथि-सत्कार करने- मांगने या भोजनादिके लिये विना बुलाये जो वाला। एहस्थके घरपर. उपस्थित हो। शास्त्रकारोंने | अतिथिपरिचर्या (स० स्त्री०) अतिथिसेवा, अतिथि- अतिथिका यह लक्षण लिखा है,- सत्कार। “यस्य न ज्ञायते नाम न च गोवं न च स्थितिः । अतिथिपूजन, अतिथिपूजा (स. स्त्री०) मिहमान- अकस्मात् ग्रहमायाति सोऽतिथिः प्रोच्यते बुधैः ॥" दारी, अतिथिका आदर-सत्कार । शास्त्रकारोंने जिसका नाम, गोत्र या वासस्थान न जाना गृहस्थोंके लिये जो पञ्चमहायज्ञ बताये हैं, उनमें जाये तथा जो अचानक ही घरमें आ पहुंचे, पण्डित अतिथिपूजा रोजका कर्त्तव्य कर्म है। उसीको अतिथि कहते हैं। हिन्दुओंके मतसे अतिथिम्ब (स• पु०) देवदासको उपमा। अतिथि-सेवाका बड़ा फल है। मूर्ख हो चाहे शत्रु, अतिथियज्ञ (सं• पु०) पांच महायज्ञोंमें पांचवां घरमें अतिथिके आनेपर यत्नसे उसको सेवा-शुश्रूषा यज्ञ, अतिथिपरिचर्या, मिहमानदारी। करे। घरमें अतिथिके आनेपर किसी भी कारणसे | अतिथिसंविभाग (सं० पु.) जैन शास्त्रको वह उसे वञ्चित न करे। शास्त्रकार कहते हैं,- शिक्षा, जिसमें बिना अतिथिको दिये भोजन करना